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भूमिका
XXXVII हैं क्योंकि उनकी उपस्थिति में ही कर्म का स्थितिबंध होता है और स्थिति को लेकर जो कर्म बँधते हैं, वे ही संसार परिभ्रमण के कारण और मुक्ति में बाधक होते हैं, न कि कर्त्तव्य बुद्धि से किये गये सत्कर्म या पुण्यकर्म। क्या पुण्य धर्म नहीं है?
पुन: यह भी प्रश्न उठाया जाता है कि जो आस्रव का हेतु हो या कर्म रूप हो वह धर्म नहीं हो सकता। पुण्य आस्रव है वह धर्म नहीं अथवा यह कि पुण्य कर्म है अत: वह धर्म नहीं हो सकता। वस्तुत: आस्रव या कर्म धर्म है या धर्म नहीं है-यह प्रश्न इस तथ्य से जुड़ा हुआ है कि धर्म से हमारा क्या तात्पर्य है? सामान्यतया धर्म शब्द वस्तु स्वभाव, कर्त्तव्यभाव और साधना पद्धति इन तीन अर्थों में प्रचलित है। यदि हम धर्म का अर्थ स्वभाव लेते हैं तो हमें यह विचार करना होगा कि पुण्यास्रव या पुण्य बंध या पुण्य विपाक आत्मा के विभाग रूप हैं या स्वभाव रूप हैं। इतना निश्चित है कि पुण्य का आस्रव, पुण्य का बंध और पुण्य का उदय या विपाक विभाव के हेतु नहीं हैं। वे विभाव के हेतु तभी बनते हैं जब उनके साथ राग-द्वेष या कषाय के तत्त्व प्रविष्ट हो जाते हैं। राग-द्वेष से ऊपर उठकर विशुद्ध रूप से कर्त्तव्य बुद्धि से विनय प्रतिपत्ति और वैयावृत्त्य या सेवा के कार्य विभाव परिणति के कारण नहीं हैं, क्योंकि कर्त्तव्य बुद्धि से की गयी क्रियाएँ ममत्व या राग से नहीं, अपितु त्याग भावना से ही प्रतिफलित होती हैं। जैन परम्परा में पुण्य के रूप में दान, सेवावृत्ति और विनय प्रतिपत्ति का जो उल्लेख हुआ है, वह त्याग भावना और मात्र कर्तव्य बुद्धि से संभव है। दान ममत्व के विसर्जन में ही संभव होता है और ममत्व का विसर्जन या त्याग भाव स्वभाव परिणति है, विभाव परिणति नहीं। पुन: यदि त्याग भाव या ममत्व का विसर्जन स्वभाव परिणति है तो वह धर्म है और ऐसी स्थिति में पुण्य को भी धर्म ही मानना होगा। पुन: त्याग भाव अथवा मात्र कर्तव्य बुद्धि से किया गया कर्म वस्तुत: निष्काम कर्म या अकर्म की कोटि में आता