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भूमिका हैं, वे पुण्य के वास्तविक स्वरूप से परिचित ही नहीं हैं। उन्होंने फलाकांक्षा युक्त सकाम कर्म करने को ही पुण्य कर्म समझ लिया है। जो वास्तविक अर्थ में पुण्य कर्म न होकर पाप ही है, क्योंकि 'राग' पाप है। पुण्य की उपादेयता का प्रश्न
पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करने के लिए आध्यात्मिक साधक प्रज्ञापुरुष पं. श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा ने अति परिश्रम करके प्रस्तुत कृति में सप्रमाण यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पुण्य हेय नहीं है, अपितु उपादेय है।
यदि पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक मानकर हेय मानेंगे तो तीर्थङ्कर नाम गोत्रकर्म को भी मुक्ति में बाधक मानना होगा, किंतु कोई भी जैन विचारक तीर्थङ्कर नाम गोत्रकर्म के बंध को मुक्ति में बाधक, अनुपादेय या हेय नहीं मानता है। क्योंकि तीर्थङ्कर नामकर्म के बंध के पश्चात् नियमत: तीसरे भव में अवश्य मुक्ति होती है। पुन: तीर्थङ्कर नाम गोत्रकर्म का, जब तक उनके आयुष्य कर्म की स्थिति होती है तब तक ही अस्तित्व रहता है। अत: वह मुक्ति में बाधक नहीं होता, क्योंकि तीर्थङ्कर नामकर्म से युक्त जीव तीर्थङ्कर नामकर्म गोत्र के उदय की अवस्था में नियम से ही मुक्ति को प्राप्त होता है।
__ वस्तुत: व्यक्ति में जब तक योग अर्थात् मन-वचन-कर्म की प्रवृत्तियाँ हैं तब तक कर्मास्रव अपरिहार्य है। फिर भी जैनाचार्यों ने इन योगों अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को हेय नहीं बताया है और न उन्हें त्यागने का ही निर्देश दिया है। उनका निर्देश मात्र इतना ही है कि मन, वचन और काया की जो अशुभ या अप्रशस्त प्रवृत्तियाँ हैं, उन्हें रोका जाये, प्रशस्त प्रवृत्तियों के रोकने का कहीं भी कोई निर्देश नहीं है। तीर्थङ्कर अथवा केवली भी योग-निरोध उसी समय करता है जब आयुष्य कर्म मात्र