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पुण्य-पाप तत्त्व पाँच ह्रस्व-स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय के समतुल्य रह जाता है, अत: पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक या संसार परिभ्रमण का कारण नहीं माना जा सकता है। वस्तुत: संसार परिभ्रमण का कारण राग-द्वेष या कषाय के तत्त्व हैं, क्योंकि राग-द्वेष या कषाय के अभाव में मात्र योग अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों के कारण जो कर्मास्रव होता है उससे ईर्यापथिक बंध होता है, साम्परायिक बंध नहीं होता। जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार बंध के चार प्रकारों में योग के निमित्त से मात्र प्रकृति
और प्रदेश का ही बंध होता है, किंतु राग-द्वेष एवं कषाय का अभाव होने के कारण उनका स्थिति बंध नहीं हो पाता। अत: ईर्यापथिक आस्रव और ईर्यापथिक बंध में स्थिति का अभाव होता है और स्थिति के अभाव में वे कर्म दूसरे समय के पश्चात् ही निर्जरित हो जाते हैं, अत: पुण्यास्रव या पुण्य कर्म संसार-परिभ्रमण का कारण नहीं है। सत्य तो यह है कि ईर्यापथिक आस्रव वस्तुत: बंध नहीं करता है।
कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने में प्रशस्त राग होता है और प्रशस्त राग भी संसार परिभ्रमण का कारण होता है। वस्तुत: यहाँ हम दो बातों को आपस में मिला देते हैं। कर्म की प्रशस्तता
और कर्म की रागात्मकता ये दो अलग-अलग तथ्य हैं। जो प्रशस्त कर्म हो वह रागात्मक भी हो, यह आवश्यक नहीं है। बंधन में डालने वाला तत्त्व राग-द्वेष या कषाय है, जैन कर्म-सिद्धांत के अनुसार उसकी अनुपस्थिति में बंधन नहीं होता है। वस्तुत: प्रशस्तकर्म का सम्पादन बंधन का कारण नहीं है। सभी सद्प्रवृत्तियाँ या पुण्य कर्म रागात्मकता या आसक्ति से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्रज्ञावान आत्माओं के कर्म कर्त्तव्य भाव से होते हैं और मात्र कर्त्तव्य बुद्धि (Sense of duty) से किया गया विनय या सेवा रूप कार्य बंधन का नहीं, अपितु निर्जरा का ही हेतु होता है। इस प्रकार कर्म-फल की आकांक्षा, ममत्व बुद्धि या कषाय ही उसके बंधन के कारण