Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( ३२ )
भेद नाटक तथा प्रकरण इन दोनों के मिश्रण से बनते हैं । भरत मुनि ने इनका विधान निम्न श्लोक में किया है-
अनयोश्च बन्धयोगादेको भेदः प्रयोक्तृभिर्ज्ञेयः प्रख्यातस्त्वितरो वा नाटीसंज्ञाश्रिते काव्ये ॥
[ नाटयशास्त्र १८, ५७ ] श्लोक का अर्थ कुछ अस्पष्ट सा है किन्तु इसका यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि नाटक तथा प्रकरण इन दोनों के योग से एक नाटिका या नाटी नाम से प्रसिद्ध भेद समझना चाहिए । अथवा दूसरा प्रकरणी नामक प्रप्रसिद्ध भेद समझना चाहिए। ये दोनों 'नाटी' नाम से कहे जाते हैं ।
इस श्लोक की अस्पष्टता के कारण कुछ लोग 'नाटिका' तथा 'प्रकरणी' दो संकीर्ण भेद मानते हैं और कुछ लोग दोनों के ससुर से बना हुआ केवल एक सङ्कीर्ण भेद मानते हैं और उसे 'नाटी' या नाटिका नाम से कहते हैं। दशरूरककार धनञ्जय 'नाटिका' रूप केवल एक सङ्कीर्णं मेद मानते हैं मोर 'नाट्यदर्पणकार' 'नाटिका' तथा 'प्रकरणी' रूप दो सङ्कीर्ण भेद मानते है । दशरूपक की व्याख्या करने वाले घनिक ने दो भेद मानने का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है"मत्र केचित्
मनयोश्च बन्धयोगादेको भेदः प्रयोक्तुभिर्ज्ञेयः । प्रख्यातस्त्वितरो वा नाटीसंशाधिते काव्ये ||
" इत्यमुळे भरतीयं श्लोकं. 'एको भेदः प्रख्यातो नाटिकाख्यः, इतरस्त्व प्रख्यातः प्रकरणिकासंशो, नाटीसंज्ञया द्वे काव्ये प्राश्रिते' इति व्याचक्षारणाः प्रकरणिकामपि मन्यन्ते । तदसत् । उद्देशलक्षणयोरन मिषानात् । समानलक्षणत्वे वा भेदाभावात् । वस्तु रस-नायकानां प्रकरणाभेदात् प्रकरणिकायाः । अतोऽनुद्दिष्टाया नाटिकाया यन्मुनिना लक्षणं कृतं तत्रायमभिप्रायः- शुद्धलक्षणसङ्करादेव तल्लक्षणे सिद्धे लक्षणकरणं सङ्कीर्णानां नाटिकैव कर्तव्येति नियमार्थं विज्ञायते : " [दशरूपक ३-४३वी टीका ]
इसका अभिप्राय यह है कि 'प्रनयोश्च बन्धयोगात्' इत्यादि भरतमुनि के श्लोक के श्राधार पर कुछ लोग नाटिका और प्रकरणी दो सङ्करकृत भेद मानते हैं । किन्तु उनकी यह मान्यता अनुचित हैं। इसके चार कारण हैं । १. नाटिका तथा प्रकरणी नाम से दो अलग-अलग भेदों का न उद्देश्य अर्थात् नाममात्र से कथन किया गया है घोर न लक्षण । २. यदि नाटिका तथा प्रकरणी दोनों का लक्षण एक सा ही माना जाय तो उनमें भेद नहीं रहता है । ३. प्रकरणी का अलग भेद मानने वाले उसका जो लक्षण करते हैं उसके अनुसार 'प्रकरणी' की वस्तु, रस मोर नायक सब 'प्रकरण' के समान होते हैं इसलिए उसे 'प्रकरण' से अलग मानना असङ्गत हो जाता है । इसलिए प्रारम्भ में कथित 'उद्दिष्ट' न होने पर भी भरतमुनि ने 'नाटिका' का जो लक्षण किया है उसका यह अभिप्राय है कि सङ्करभेदों में से केवल एक 'नाटिका' की रचना करनी चाहिए।
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धनिक द्वारा किए इस उत्कट विरोध के बाद भी रामचन्द्र गुणचन्द्र ने 'प्रकरणी' को 'erfeer' free रूपक भेद मान कर उसका लक्षण किया है
' एवं प्रकरणी किन्तु नेता प्रकरणोदितः ।'
अर्थात् नाटिका के समान चतुरङ्कत्व पादि धर्मों से युक्त 'प्रकरणी' होती है। किन्तु इस में भेद यह है कि नाटकोत राजादि नायक के स्थान पर प्रकरणोक्त वणित् यादि नायक होगा
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