Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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"निपस्यामजनप्रायस्य प्रथममनुपादेयत्वेऽपि उपादानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायितां. मिषानार्थम् ।"
[काव्य प्रकाश शानमण्डल पृ०.१३८] सङ्गीतरत्नाकर में भी इसी मुक्तिकम से निर्वेद को शान्त रस का स्थायिभाव सिद्ध करते हुए लिखा है
उहिल्य स्थापिनः, प्राप्ते समये व्यभिचारिणाम् । प्रमालमपि ते पूर्व निर्वेदमेव यत् ॥ मुनिर्मनेऽस्य तन्नूनं स्यायिता-व्यभिचारिते। पूर्वापरान्वयो यस्य मध्यस्यस्यानुषङ्गतः ।।
[सङ्गीतरत्नाकर १३१५-१३१६] नाटपर्पणकार इस बात को नहीं मानते हैं। उनके मत में 'निर्वेद' केवल व्यभिचारिमाव है, स्यायिभाव नहीं है । इसलिए उसे शान्तरस का स्थायिभाव नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है"मयं निवेदः रसेवनियतत्वात् कावारिकत्वाच्च व्यभिचारी, म स्थायी।"
[नाट्यदर्पण ३-२८] अभिनवगुप्त ने भी निर्वेद को शान्तरस का स्थायिभाव नहीं माना है । उन्होंने विस्तार पूर्वक इसका खण्डन करते हुए अभिनवभारती में पृ. ६१३-६१७ तक इसका विवेचन किया है । उसके अन्त में लिखा है कि
"ततश्च तस्वमानमेवेदं तस्वमानमालया परिपोष्यमाण. मिति न निर्वेदः स्थायी, किन्तु तस्वमानमेव स्थायीति भवेत् ।"
[अभिनवभारती पु० ६१७] इससे यह स्पष्ट है कि युक्ति कम के मिन्न होने पर भी निर्वेद शान्तरस का स्थायिभाव नहीं है इस विषय में नाटपदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र अभिनव गुप्त के साथ हैं। नाए रपण या विषय
रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अपने 'माटषदर्पण' अन्य की रक्षना यचापि भरत मुनि ६ बाटयशास्त्र के माधार, पर की है किन्तु इन दोनों में बहुत अन्तर है। नाट्य शाः ३६ अध्यायों का एक विशाल विश्वकोष है जिसमें प्रायः समी ललित कलामों का उल्लेख पाया जाता है। उसके सामने नाटयक्षण' बहुत छोटा सा ग्रन्थ है। इसमें नाटयशास्त्र के केवर १८वें अध्याय में पणित विषय काही प्रतिपादन किया गया है । नाटय शास्त्र के १८वें अध्याय का 'दश सपकनिरुपणाध्याय' है। इसमें १ नाटक, २ प्रकरण, ३ ज्यायोग, ४ समवकार, ५ भाण, ६ प्रहसन, ७ डिम, भर.ईहामुग भौर १० वीची इन दस प्रकार के रूपकों का वर्णन किया गया है। इसीलिए इस अध्याय को 'दशा-निरूपणाध्याय' कहते है। इसी प्रध्याय के माधार पर धनञ्जय मे हरूपक' की रचना की थी और उसी के भाषार पर रामचन्द्र गुपपन्न ने. 'नाटपक्षपण की रसना की है।
नाटयशास्त्र के.१८ प्रयाय का नाम 'दशरूपकाध्याय' है, किन्तु उसमें पूर्वोक्त दश पुर व्यकों के निरूपण के साथ सबके संगुर से बम्प दो पकों का भी वर्णन किया है। ये
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