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जैन-रत्न
संहनन, आदि और कल्पवृक्षोंका प्रभाव क्रमशः कम होता जाता है। ___२-सुषमा-यह आरा तीन कोटाकोटि सागरोपमका होता है। उसमें मनुष्य दो पल्योपमकी आयुवाले, दो कोस ऊँचे शरीरवाले और तीन दिनमें एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इसमें कल्प वृक्षोंका प्रभाव भी कुछ कम हो जाता है। पृथ्वीके स्वादमें भी कुछ कमी हो जाती है और जलका माधुर्य भी कुछ घट जाता है। इसमें सुखकी प्रबलता रहती है । दुःख भी रहता है मगर बहुत थोड़ा। ____३-सुषमा दुःखमा-यह आरा दो कोटाकोटि सागरोपमका होता है । इसमें मनुष्य एक पल्योपमकी आयुवाले, एक कोस ऊँचे शरीरवाले, और दो दिनमें एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इस आरेमें भी ऊपरकी तरह प्रत्येक पदार्थमें न्यूनता आती जाती है । इसमें सुख और दुःख दोनोंका समान रूपसे दौरदौरा रहता है । फिर भी प्रमाणमें सुख ज्यादा होता है।
४-दुखमा मुषमा-यह आरा बयालीस हजार कम एक कोटाकोटि सागरोपमका होता है। इसमें न कल्पवृक्ष कुछ देते है न पृथ्वी स्वादिष्ट होती है और न जलमें ही माधुर्य रहता है। मनुष्य एक करोड़ पूर्व आयुष्यवाले और पाँच सौ धनुष ऊँचे शरीरवाले होते हैं । इसी आरेसे असि, मसि और कृषिका कार्य प्रारंभ होता है। इसमें दुःख और सुखकी समानता रहनेपर भी दुःख प्रमाणमें ज्यादा होता है।
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