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तीर्थकर चरित-भूमिका
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आभूषण अर्थात जेवर देते हैं (९) 'गेहाकार' गंधर्व नगरकी तरह उत्तम घर देते हैं और (१०) 'अनग्न' नामक कल्पवृक्ष उत्तमोत्तम वस्त्र देते हैं। उस समयकी भूमि शर्करासे (शक्करसे)भी अधिक मीठी होती है । इसमें जीव सदा सुखी ही रहते हैं । यह आरा चार कोटाकोटि सागरोपमका होता है । इसमें आयुष्य,
१- आँख फुरकती हैं इतने समयमें असंख्यात समय हो जाते हैं । अथवा वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षणरूप काल जिसके भूतभविष्य का अनुमान न हो सके, जिसका फिर भाग न हो सके उसको 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयोंकी एक 'आवली' होती है । ऐसी दो सौ और छप्पन आवलियोंका एक 'क्षुल्लक भव' होता है ; इसकी अपेक्षा किसी छोटे भवकी कल्पना नहीं हो सकती है । ऐसे उत्तर क्षुल्लक भवसे कुछ अधिकमें एक 'श्वासोच्छ्वास रूप प्राणकी' उत्पत्ति होती है । ऐसे सात प्राणोत्पत्ति कालको एक 'स्ताक' कहते हैं । ऐसे सात स्तोकको एक 'लव' कहते हैं। ऐसे सतहत्तर लवका एक मुहूर्त (दो घड़ी) होता है । इस ( एक मुहूर्तमें १,६७,७७,२१६ आवलियाँ होती है।) तीस मुहूर्त्तका एक 'दिन रात' होता है । पन्द्रह दिन रातका एक 'पक्ष' होता है। दो पक्षोंका एक महीना होता है । बारह महीनों का एक वर्ष होता है। (दो महीनोंकी एक 'ऋतु' होती है । तीन ऋतुओंका एक 'अयन' होता है। दो अयनोंका एक वर्ष होता है।) असंख्यात वर्षांका एक पल्यापम होता है । दश कोटाकोटि पल्योपमका एक सागरोपम होता है । बीस कोटाकोटि सागरोपमका एक कालचक्र होता है। ऐसे 'अनंत' कालचक्रका एक पुद्गल परावर्तन होता है।
(नोट-यहाँ 'अनन्त' शब्द और 'असंख्यात' शब्द अमुक संख्याके द्योतक हैं । शास्त्रकारोंने इनके भी अनेक भेद किये हैं । इस छोटीसी भूमिकामें उन सबका वर्णन नहीं हो सकता । इन शब्दों ('असंख्यात या' अनन्त ) से यह अर्थ न निकालना चाहिए कि संख्या ही न हो सके। जिसका कभी अन्त ही न आवे।) ।
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