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प्राचीन समय में युगलिक मनुष्य भी कल्पद्रुम' से आहार प्राप्त किया करते थे, बाद में भगवान् ऋषभदेवजी ने कृषि की शिक्षा दी जिसके परिणामस्वरूप मानवजाति को आहार की उपलब्धि एक सुव्यवस्थित ढंग से होने लगी। इसलिए आहार वायु और जल के बाद जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है। आहार के द्वारा केवल मनुष्य की उदरपूर्ति, स्वास्थ्य-प्राप्ति अथवा स्वाद की पूर्ति ही नहीं होती है, व्यक्ति के मानसिक व चारित्रिक-विकास पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। आहार का हमारे आचार-विचार एवं व्यवहार से गहरा संबंध है। प्राचीन कहावत है -"जैसा खाये अन्न, वैसा होय मन" यह कहावत आज भी उतनी ही सत्य है। आहार- शुद्धि के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए मनीषियों ने कहा है -
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः, सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।
स्मृतिर्लब्धे सर्व ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।।1 अर्थात् आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण शुद्ध बनता है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर हमारी बुद्धि निर्मल बनती है। निर्मल बुद्धि के उत्पन्न होने पर अज्ञान और भ्रम दूर हो जाते हैं और अन्ततः सभी बन्धनों से मुक्ति मिल जाती है। इसका अभिप्राय यह है कि भोजन का शुद्ध होना, सात्विक होना आध्यात्मिक-दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। दशवैकालिकसूत्र में इस शरीर धारक का उद्देश्य मोक्ष की और परमसत्य की प्राप्ति करना है, अतः साधक को इसी उद्देश्य से आहार ग्रहण करना चाहिए।
महान् नीतिकार चाणक्य ने कहा है - मनुष्य का आहार ही उसके विचारों का और चरित्र का निर्माता है। जो व्यक्ति जैसा आहार करेगा, उसका निर्माण भी वैसा ही होगा।
10 गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होति सव्वकप्पतरू।
णियणियमण संकप्पियवत्थूणिं देंति जुगलाणं ।। तिलोयपण्णति अधिकार 4, गाथा 341 ।" छान्दोग्योपनिषद् – अ 7 खण्ड 26/2 12 मोक्ख साहुण हेउस्स साहु देहस्य धारणा, दशवैकालिकसूत्र (5/1/93)
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