________________ परिच्छेद दो मूल-सूत्र, छेद-सूत्र, प्रकीर्णक और व्याख्या-साहित्य मूल सूत्र आगमों के वर्गीकरण के क्रम में अलग-अलग विद्वानों ने मूल सूत्रों के अन्तर्गत अलग-अलग आगमों को रखा है। विक्रम सम्वत् 1334 में लिखित प्रभावक चरित्र के श्लोक क्रमांक 241 में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का वर्णन मिलता है। उसके बाद उपाध्याय समय सुन्दर ने समाचारी शतक (पत्र 76) में इस विभाग का उल्लेख किया है। इस प्रकार 13वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मूल सूत्र विभाग बन गया था। जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमणाचार सम्बन्धी मूल गुणों (5 महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि) का निरूपण तथा जो श्रमण चर्या में मूल रूप से सहायक हों उन्हें मूलं सूत्र कहा जाता है। डॉ शुबिंग ने उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति व ओघ-नियुक्ति को मूल सूत्र माना है। वर्तमान में निम्न आगम ग्रन्थों को मूल सूत्र में परिगणित किया जाता है। 1. उत्तराध्ययन : यह सूत्र भगवान महावीर की अन्तिम देशना का संकलन माना जाता है। इसे जैन धर्म की गीता भी कहा जाता है। चारों अनुयोगों का इसमें समावेश हो जाता है। इसमें छत्तीस अध्ययन, 1656 पद्य-सूत्र, 89 गद्य-सूत्र और कुल 2100 श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ हैं। भाषा और विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ प्राचीन है। इस आगम के अनेक सुभाषित और संवाद बौद्ध-ग्रन्थों में भी मिलते हैं। डॉ. विण्टरनित्स ने इसे श्रमण-काव्य कहते हुए इसकी तुलना धम्मपद, महाभारत और सुत्तनिपात से की है। शिक्षाशास्त्र, आचारशास्त्र, नीतिशास्त्र, मानवीय एकता, सामाजिक समता, कर्मकाण्डों की .. व्यर्थता आदि अनेक उपयोगी विषयों को विभिन्न दृष्टियों और दृष्टान्तों द्वारा इसमें समझाया गया है। 2. दशवैकालिक : मल आगमों में दशवैकालिक का विशिष्ट महत्व है। आचार्य शय्यम्भव रचित यह आगम नियूढ़ माना जाता है, स्वतन्त्र नहीं। इसका समावेश चरणकरणानुयोग में किया जाता है। इसमें 10 अध्ययन, 2 चूलिकाएँ, 14 उद्देशक तथा 700 श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है; जिसमें 514 पद्यसूत्र और 31 गद्य-सूत्र है। (13)