________________ भगवती सूत्र के अनुसार तुंगिका ग्राम के श्रावक सम्पन्न थे तथा वे बैंकिंग का कार्य भी करते थेजैन आचार दर्शन में अपव्यय पर अंकुश और बचत को प्रोत्साहन की प्रवृत्ति से मुद्रा-स्फीति नहीं बढ़ती थी और वस्तुओं की कीमतें नियन्त्रित रहती थी। सकल राष्ट्रीय उत्पाद पर इसका अनुकूल असर होता था। इससे समस्त प्रजा लाभान्वित होती थी। ऋण देना तत्कालीन समय में समाज का धनाढ्य वर्ग बैंकिंग सेवाएँ प्रदान करता था। बैंकिंग का कार्य अन्य अच्छे व्यवसायों की भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त था। वणिक, श्रेष्ठी, गाथापति आदि ऋण देने का कार्य करते थे। उपासकदशांग के दसों गाथापति ऋण देने का कार्य करते थे। ऋण देते समय पूरी तरह से लिखा-पढ़ी की जाती. किसी की साक्षी ली जाती अथवा गवाह के हस्ताक्षर करवाये जाते। लोग झूठी गवाही भी दे देते थे। इससे तत्कालीन समय में लेखांकन करने और लेखापुस्तकें, बहियाँ आदि. अभिलेख रखने की सूचना मिलती है। जो किसी भी व्यवसाय के लिए अत्यन्त जरूरी होता है। संभवतः इन बहियों के आधार पर ही ऋण न चुकाये जाने की दशा की मुख्य ऋणी के दिवंगत हो जाने पर भी उसके उत्तराधिकारी पर ऋण चुकाने का दायित्व रहता था। ऐसे ऋण को पैतृक ऋण कहा जाता था ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार धन्य सार्थवाह ने घोषणा की कि जो भी व्यापारी उनके सार्थ के साथ चलना चाहे और उनके पास धन नहीं हो तो उसे व्यापार के लिए अग्रिम तौर पर उधार दिया जायेगा राजगृह के सार्थवाह उनका धन दुगुना करने के लिए ऋण के रूप में देते थे। इससे ऊँची ब्याज दर होने का पता चलता है तथा ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि ब्याज दरें ऊँची भी हुआ करती थी। इतनी ऊँची भी होती थी कि ऋण लेने के बाद सामान्य व्यक्ति के लिए चुकाना मुश्किल हो जाता था। जो व्यक्ति ऋण नहीं लौटा पाता उसे तिरस्कार का पात्र होना पड़ता। ऋणदाता के वहाँ दास के रूप में कार्य करना पड़ता था। विशेष परिस्थितियों में ऋणी को ऋण-मुक्त करने की सूचनाएँ भी मिलती है। वणिक-न्याय के अनुसार यदि ऋण लेने वाला स्वदेश में हो तो उसे अनिवार्य रूप से ऋण चुकाना होता था किन्तु यदि वह समुद्र-यात्रा से विदेश गया हो और उसके साथ कोई हादसा हो गया हो और किसी तरह वह प्राण-रक्षा करके लौटा हो तो उसका कर्ज माफ कर दिया जाता था। किसी की पूरा ऋण चुकाने की (73)