________________ बीच के मूल्य वाले वस्त्र ‘मज्झिम' श्रेणी में माने जाते थे। 18 रूवग से लेकर एक लाख रूवग तक कितनी किस्में रही होगी, यह अनुमान लगाया जा सकता है। प्रसिद्ध वस्त्र-व्यवसाय-केन्द्र _वस्त्र-व्यवसाय देश में सर्वत्र था। परन्तु कुछ निर्दिष्ट स्थान इस व्यवसाय के लिए विशेष तौर पर प्रसिद्ध थे। 'निशीथचूर्णि' में महिस्सर को "बहुवत्थदेस" बहुत सारे वस्त्रों वाला देश कहा गया है। वहाँ बढ़िया किस्म के वस्त्र बनते थे और साधु-साध्वियों को भी उत्तम वस्त्र धारण की अनुमति थी। इसके अलावा मदुरा, कबिंग, काशी, बंग, वत्स, सिंधु, मालवा, पौंड्रवर्धन, नेपाल, ताम्रलिप्ति, सौवीर, लाटदेश आदि स्थान वस्त्र-उद्योग और व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध स्थान थे। ये स्थान तरह-तरह के वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। ज्ञाताधर्मकथांग में वस्त्र-निर्यात का उल्लेख भी मिलता है। इस सारे वर्णन और विवरण से यह स्पष्ट होता हे कि अर्थतन्त्र का ताना-बाना बुनने में वस्त्र-व्यवसाय का मुख्य योगदान था। धातु उद्योग खनन/उत्खनन के बारे में हम चर्चा कर चुके हैं। पूरा धातु उद्योग इस पर निर्भर था। जो स्वरूप वर्तमान धातु-उद्योग का है, वैसा आगम-युग में भले ही न रहा हो; परन्तु प्राप्त सन्दर्भ मानव के श्रम, कौशल और ज्ञान के अद्भुत प्रमाण हैं। 72 कलाओं में धातुवाद का उल्लेख किया जा चुका है। आचारांग-सूत्र में पीतल और कांस्य, जो मिश्रित धातु है, का उल्लेख टीन और जस्ते के प्रयोग को प्रमाणित करता है। लोहे, त्रपुस, ताम्र, जस्ते, सीसे, कांसे, चाँदी, सोने, मणि, वज्र आदि से बहुमूल्य पात्र तैयार किये जाते थे। साधारण-पात्रों में थाल, पात्री, थासग, मल्लग (प्याले), कइविय (चमचा), अवपतक (छोटा तवा), करोडिया (कटोरी), तवय (तवा), कवल्लि (खड़पा), कन्दुअ, चन्दालग (ताम्बे की कंडाल) आदि उल्लेखनीय ' है। धातु-उद्योगों में लोह और स्वर्ण उद्योग को प्रमुख स्थान था। लोह उद्योग लोह उद्योग कुटीर उद्योग के रूप में प्रतिष्ठित था। नगर-नगर में लुहार होते थे और लोहकारों की कार्यशालाएँ होती थीं। स्वयं तीर्थंकर महावीर कई बार इस तरह की लौहशालाओं में ठहरे थे। भगवती-सूत्र-6 में लोहशाला की कार्यप्रक्रिया की एक झलक दी गई है। उसमें बताया गया है कि लोहे को भट्टी में डालकर तप्त किया जाता था। आग को तेज प्रज्वलित करने के लिए चमड़े की (129)