________________ बारहवाँ पाप है - कलह। कलह एक ऐसा पाप-तत्व है, जो परिवार से लगाकर देश और दुनिया में तक होता है। अधिकांश पारिवारिक कलहों का मूल कारण अर्थ होता है। व्यक्ति को अर्थ के सम्बन्ध में पारदर्शी, उदार और सुस्पष्ट रहना चाहिये। राष्ट्रीय और वैश्विक कलहों के मूल में भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ कारण बनता है। अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर की सत्ता व सम्पत्ति पर हक जमाने की कोशिशें कलह पैदा करती हैं। कलह के अन्य कारणों से भी बचना चाहिये। क्यों कि कलह जीवन और जगत के अर्थ-तन्त्र को तार-तार कर देता है। इस सम्बन्ध में वैदिक ऋषियों ने कहा कि कलह करने वाला जीवन में सुखसमृद्धि, लक्ष्मी और सौभाग्य को प्राप्त नहीं कर सकता। .. __ तेरहवाँ पाप है - अभ्याख्यान / इसका अर्थ होता है - मिथ्या दोषारोपण। झूठे आरोप लगाना बन्द हो जाय तो अनेक झगड़े-टण्टे समाप्त हो जाय। न्यायालय पर अनावश्यक कार्य भार कम हो जाय। चौदहवाँ और पन्द्रहवें पाप हैं - पैशुन्य (चुगली) तथा परपरिवाद (पर-निन्दा)। किसी के बारे में दुर्भावना से सच्ची-झूठी शिकायतें करना चुगली है। निन्दा और चुगली व्यक्तियों और देशों के बीच वैमनस्य पैदा करती है। इन चीजों से स्वयं का, समाज और देश का विकास दुष्प्रभावित होता है। ... सोलहवाँ पाप है - रति-अरति। बच्चों की टीवी के अनावश्यक कार्यक्रम प्रिय लगते हैं और अच्छी बातें अप्रिय। इससे उनकी पढ़ाई, स्वास्थ्य और कैरियर प्रभावित होता है। जहाँ तक बड़ों का सवाल है, मौज-मस्ती और सैर सपाटों में रुचि लेने वाले और अनुशासन व परिश्रम से जी चुराने वाले विपन्नता को आमन्त्रित करते हैं। हमें हमारी प्रियताओं व अप्रियताओं को अर्थशास्त्र के उपयोगिता के सिद्धान्त के सन्दर्भ में देखना चाहिये। अन्तिम दो पाप हैं - मायामृषावाद और मिथ्यादर्शन। इन पापों से बचने के लिए व्यक्ति को छल-कपट और गलत धारणाओं से बचना चाहिये। गरीबी और अमीरी को पिछले जन्मों के पुण्य-पाप का ही परिणाम मान लेने से भारतीय समाज में अप्रिय स्थितियाँ पैदा हो गई थी। पुण्य-पाप के दर्शन को वैज्ञानिक अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखने पर हमें समाधान मिलता है और नव-निर्माण की दिशा भी। आश्रव, बन्ध और संवर __अर्थशास्त्र का आश्रव है - निरंकुश ढंग से आवश्यक-अनावश्यक खर्चों का होना और होते जाना। संयमित जीवन दृष्टि ऐसे खर्चों पर विराम लगाती है। यह (246)