________________ संसार के अधिकांश झगड़ों अपराधों के मूल में परिग्रह की चेतना काम करती है। परिग्रह होता है तो समस्याएँ पैदा होती है और परिग्रह नहीं होता है तो. समस्याएँ पैदा होती है। वस्तुतः समस्याओं का मूल मूर्छा का भाव है। एक गरीब व्यक्ति अपनी छोटी-सी कुटिया में सुख की नींद सो सकता है और एक अमीर व्यक्ति उसकी अट्टालिका में भी चैन से नहीं जी पाता है। वस्तुओं के बढ़ जाने से गुणात्मक रूप से सुख नहीं बढ़ता है। उत्तराध्ययन में भगवान महावीर कहते हैं - वित्तेण ताण न लभे पमत्ते। इमम्मि लोए अदुवा परत्थ। धन व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकता, न ही उसे वह स्थायी सुख व तृप्ति देता है। इसलिए परिग्रह कितना ही क्यों न बढ़ जाय, उससे व्यक्ति दुख से मुक्त नहीं हो सकता। आधुनिक अर्थशास्त्र के सारे मापदण्ड धन-सम्पत्ति और बाहरी सुख-सुविधाओं पर आधारित है। इन मापदण्डों के आधार पर वह व्यक्ति में अनावश्यक व्यग्रता और विद्रोह पैदा करता है। इससे समाज में अवांछित होड़ा-होड़ी और संघर्ष का जन्म होता है। अपरिग्रह : जैन परम्परा की देन भगवान महावीर ने जितना जोर अहिंसा पर दिया, सम्भवतः उससे अधिक ही अपरिग्रह पर दिया। भगवान पार्श्वनाथ के समय जैन परम्परा में चातुर्याम की व्यवस्था थी। डॉ. दयानन्द भार्गव कहते हैं कि जैन परम्परा में पाँचवें व्रत के रूप में अपरिग्रह भगवान महावीर की देन है और भारतीय परम्परा में अपरिग्रह की अवधारणा जैन परम्परा की देन है। अपरिग्रह के विकास के लिए जैन परम्परा में बहुविध विधान किये गये हैं। परिग्रह के परिसीमन के लिए अस्तेय, इच्छापरिमाण व्रत, लोभ-विसर्जन, त्याग, सन्तोष, दान, अनासक्ति आदि अनेक उपाय बताये गये हैं। जैन परम्परा में परिग्रह-अपरिग्रह पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया। इसका भारतीय जन-जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था पर हर युग में व्यापक असर हुआ। महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त अपरिग्रह-व्रत का ही रूप है। अस्तेय और अपरिग्रह जैसा कि बताया गया परिग्रह आसक्ति का रूप है। आसक्ति तीन रूपों में प्रकट होती है - अपहरण (शोषण), संग्रह और भोग।" अपहरण और शोषण का उपचार अस्तेय व्रत में बताया गया है। परधन की इच्छा, परधन हरण, मूर्छा, तृष्णा, गद्धि, असंयम, कांक्षा, हस्त-लघुता, स्तेनक, कूटतोल माप और बिना दी हुई वस्तु लेना - ये सब चोरी के ही रूप हैं। अस्तेय व्रत की सूक्ष्मता का बोध कराते हुए (308)