Book Title: Jain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ अपरिग्रह की भावना के स्मरण का विधान करते हैं। श्रावक नित्य यह मनोरथ (सदिच्छा) करें कि वह दिन धन्य होगा जिस दिन वह परिग्रह से निवृत्त होकर अपरिग्रह के जीवन की ओर बढ़ेगा। उन्होंने दो प्रकार के परिग्रह बताये - अन्तरंग और बाहरी अन्तरंग या आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार के होते हैं - बाहरी परिग्रह दस प्रकार का बताया गया है। उन्हें गृहस्थाचार के चौथे व्रत में बताये भेदों के अनुसार ही समझना चाहिये। परिग्रह के तीस नाम परिग्रह के इन भेदों से स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति भीतर से रिक्त होता है, वह बाहर से उस रिक्तता को भरने का प्रयास करता है। किन्तु उसका वह प्रयास मात्र आत्म-वंचना ही सिद्ध होता है। यहाँ तक भीतरी तौर पर परिग्रही का बाहरी त्याग भी व्यर्थ ही होता है। स्पष्ट है कि अपरिग्रह का व्रत व्यक्ति के आत्मवैभव, भाव-सम्पदा और वैचारिक-सम्पदा को बढ़ाता है। वह व्यक्ति को आत्मविश्वास से भर देता है। वह धन के पीछे नहीं दौड़ता, अपितु उसके पुरुषार्थी व्यक्तित्व के कारण धन उसका अनुसरण करता है। दूसरी ओर परिग्रह व्यक्ति को अन्तरंग रूप से दरिद्र बना देता है। हाय धन, हाय धन' की वृत्ति मन की रुग्णता की सूचक है। परिग्रह अनेक रूपी होता है। प्रश्नव्यकरण सूत्र में उसके तीस नाम बताये गये हैं - परिग्रह, संचय, चय, उवचय, विधान, संभार, संकर, आदर, पिण्ड, द्रव्यसार, महेच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, महर्द्धि, उपकरण, संरक्षण, भार, सम्पादोत्पादक, कलिकरण्ड, प्रविस्तर, अनर्थ, अनर्थक, संस्तव, अगुप्ति, आयास, अविवेक, अमुक्ति, तृष्णा, आसक्ति और असन्तोष। इन नामों से पता चलता है कि परिग्रह कितना बहुरूपिया है। वह मानव को सुख से जीने नहीं देता है। होना यह चाहिये कि जो अधिक सद्गुणी हो, वह समाज में अधिक शक्तिशाली हो। किन्तु जहाँ धन-लिप्सा अनियन्त्रित छोड़ दी जाती है, वहाँ धन/परिग्रह शक्ति व सम्मान का मापदण्ड बन जाता है। इसी मापदण्ड से विषमता बढ़ती है। अपरिग्रह और इच्छा-परिमाण गृहस्थाचार में हमने पाँचवें व्रत अपरिग्रह के बाद छठवें दिशा-परिमाण और सातवें उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत पर चर्चा की। छठवें और सातवें व्रत का सम्बन्ध इच्छा-परिमाण से है, जिससे पाँचवें व्रत की आराधना अधिक गहरे अर्थों में होती है। भगवान महावीर कहते हैं कि इच्छा आकाश के समान असीम है, (311)

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408