________________ अभिव्यक्ति दी है बल्कि यह है कि उसने एक व्यावसायिक समाज की जरूरत के मुताबिक कितना खपत के लायक माल तैयार किया है। ऐसे समाज में आदमी की संवेदनशीलता और सृजनशीलता नष्ट होती चली जाती है। इससे उसका आत्मबोध और अस्मिता-बोध समाप्त हो जाता है। व्यक्ति भीतर से रिक्त हो जाता है। आगमों की भाषा में जो व्यक्ति शिल्पी, कलाकार और कारीगर थे, पूंजीवादी व्यवस्था ने उन सबको 'श्रमिक' बना डाला। इस व्यवस्था ने मानव-मानव के बीच के समता और बन्धुत्व के मूल्यों का लोप कर दिया। संसार के अधिकांश देशों में लोकतन्त्रीय व्यवस्था आ गई तो पूंजीवाद आर्थिक उपनिवेश की ओर बढ़ने को आतुर है। पूंजीवाद पूरी तरह भौतिकवाद पर आधारित है। फिर भी, सभ्यता और विकास के अनेक क्षेत्रों में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने दूसरी व्यवस्थाओं के साथ मिलकर योगदान किया है। बेशक, वह योगदान संग्रह के विसर्जन पर ही सम्भव हुआ। असंग्रह और ट्रस्टीशिप की अवधारणाओं से प्रेरित पूंजीवाद परोक्ष रूप से समाजवाद की ओर बढ़ता है। परन्तु बाजारव्यवस्था पुनः उसे रोक देती है। समाजवाद और साम्यवाद उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स (1818-1883) ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की शोषण-प्रवृत्ति के विरुद्ध बिगुल बजा दिया। उन्होंने कहा 'इतिहास का निर्माण राजा-रानियों के किस्सों, सेना-नायकों की जय व पराजय तथा जनसंख्यात्मक कारकों से न होकर, आर्थिक कारकों द्वारा हुआ है।" पूंजीपतियों द्वारा निर्धन और मजदूर वर्ग (सर्वहारा वर्ग) के शोषण को देखकर मार्क्स करुणा और विद्रोह से भर उठे थे। मार्क्स के अनुसार शोषण की व्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value) काम करता है। पूंजीपति को जो अतिरिक्त व अतिलाभ होता है, वह श्रमिक के श्रम का अतिरिक्त मूल्य है। जिसे पूंजीपति हड़प जाता है, यही श्रम का शोषण है। शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की स्थापना की। इस सिद्धान्त के अनुसार बाहरी व्यवस्थाओं के परिणाम स्वरूप मनुष्य में होने वाले जैव-रासायनिक परिवर्तन ही 'मन' है। इसका अर्थ यह है कि जैसी बाह्य व्यवस्थाएँ होंगी, मानव का मन वैसा ही हो जायेगा। पदार्थ प्राथमिक सत्ता है और मन उसके आधार पर विकसित चीज़ ... है। इसलिए व्यवस्थाएँ बदल देने पर सब ठीक हो जायेगा। व्यवस्था परिवर्तन में (335)