________________ तीसरे परिच्छेद में शौरसेनी आगम साहित्य का परिचय दिया गया है। इस परिचय में आगमों का परिमाण और विषय सामग्री से सम्बन्धित जानकारी है। आगमसाहित्य हमें दीर्घ कालखण्ड, विशाल क्षेत्रफल, बहुधर्मी संस्कृति, भाषा आदि के . बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करता है। जैन परम्परा में अर्थ सम्बन्धी अवधारणाएँ शोध-प्रबन्ध के दूसरे अध्याय में जैन परम्परा में अर्थ सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार किया गया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव श्रमण-संस्कृति के ही आदि संस्थापक नहीं थे, वे श्रम और कर्म (पुरुषार्थ) की महान संस्कृति के भी प्रथम सूत्रधार थे। असि (राजतन्त्र), मसि (अर्थतन्त्र), कृषि (प्रजातन्त्र), विद्या (ज्ञानविज्ञान), वाणिज्य (व्यापार-व्यवसाय) और शिल्प (कला-संस्कृति) का प्रायोगिक व सर्व उपयोगी ज्ञान प्रदान करने वाले ऋषभदेव अर्थशास्त्र के आद्य संस्थापक भी थे। आगम-युग में अर्थशास्त्र होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। अर्थ के महत्व को रेखांकित करने वाले उदाहरण और उद्धरण प्रचुर हैं। प्रत्येक तीर्थंकर की माँ तीर्थंकर के च्यवन-कल्याणक के समय धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी और रत्नराशि के स्वप्न देखती हैं। आगम-ग्रन्थों में बताया गया है कि आत्म-विकास और व्यक्तित्वविकास के लिए जिन साधनाओं की आवश्यकता होती है, उनकी शुरूआत सम्यग्दर्शन से होती है तथा उनकी पूर्णता कैवल्य और मुक्ति (मोक्ष) की उपलब्धि पर होती है। यह तथ्य गौरतलब है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में अर्थ-विसर्जन (सुपात्र-दान) मुख्य निमित्त के रूप में बताया गया है और कैवल्य (मुक्ति) के लिए वज्रऋषभनाराच का शारीरिक संहनन होना अनिवार्य है। अतुल शारीरिक बल (भौतिक सामर्थ्य) की शर्त, एक अर्थपरक बात है। इससे यह फलित होता है कि साधना और आत्म-विकास में भी आदि से अन्त तक 'अर्थ' की भूमिका होती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अर्थ का अर्थ केवल 'वित्त' या मुद्रा से ही नहीं है, वरन् उन सभी निमित्तों और उपादानों से हैं, जो हमारे जीवन की बेहतर व्यवस्थाओं के लिए आवश्यक है। अर्जन और विसर्जन में विवेक भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ की चर्चा हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें अर्थ की अपनी महत्ता है और जीवन के सन्तुलन के लिए चारों में सामंजस्य आवश्यक है। यह सामंजस्य इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति (362)