Book Title: Jain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 401
________________ संवर और निर्जरा-बन्ध को समझता है, उसका आचरण दूसरों जैसा होते हुए भी दसरों से भिन्न होता है। उसका विवेक सदा प्रदीप्त रहता है, इसलिए वह पाप नहीं करता है - समत्तदंसी न करेई पावं। आहार करने के साथ वह अनाहार का महत्व भी समझता है। निर्जरा के लिए एक नहीं, बारह प्रकार के तपों द्वारा जीवन को नित नये आयाम देता है। उसकी तपस्याएँ उसके लिए ही नहीं, सबके लिए लाभदायक सिद्ध होती है। तप का आर्थिक मूल्यांकन रोचक है। कर्मवाद जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त है। आर्थिक दृष्टि से इसकी सबसे बड़ी फलश्रुति पुरुषार्थवाद और कर्मण्यता का परिष्कार है। इसके बाद कषाय-. मुक्ति का आर्थिक मूल्यांकन किया गया है। लोभ से शोषण और अप्रामाणिकता बढ़ती है। क्रोध से युद्ध, आक्रमण, प्रहार, हत्या आदि घटनाएँ होती हैं। माया से अविश्वास और अमैत्री तथा मान से घृणा आदि बुराइयाँ पनपती हैं। इन बुराइयों से हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन में तरह-तरह की समस्याएँ पैदा होती हैं। निर्लोभता. निराभिमानिता, ऋजुता-मृदुता और क्षमा-सहिष्णुता से ये सारी समस्याएँ नौ दो ग्यारह हो जाती हैं। अहिंसा और अनेकान्त . वस्तु-स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त भी जैन दर्शन का मौलिक और वैज्ञानिक सिद्धान्त है। यह अहिंसा और स्वतन्त्रता की गहरे अथों में व्याख्या करता है। जिसकी समझ गहरी हो जाती है, उस पर कोई विचार या नियम थोपने की आवश्यकता नहीं रहती है। आत्मवाद की निष्पत्ति वस्तु-स्वातन्त्र्य से होती है। आचारांग सूत्र में दिया गया स्थावर कायिक जीवों की रक्षा का सन्देश वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण की दृष्टि से बहुत मूल्यवान हो गया है। स्थावर जीवों की रक्षा के साथ त्रस जीवों की रक्षा और त्रस जीवों की रक्षा के साथ स्थावर जीवों की रक्षा जुड़ी हुई है। पारिस्थितिकी और जैव-विविधता की दृष्टि से अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या का बहुत महत्व हो जाता है। इससे सूक्ष्म-अहिंसा के अनुपालन की प्रेरणा मिलती है। आत्मवाद की इस आधारभूमि पर मानववाद भी खड़ा है। आगमसाहित्य में मानवीय एकता के अनेक उदाहरण हैं। भगवान महावीर के संघ में बिना किसी भेद के सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त हैं तो सार्थवाह के सार्थ में भी हर जाति, वर्ण और वर्ग के व्यक्ति होते हैं। अनेकान्त का सिद्धान्त विश्व को जैन दर्शन की मौलिक देन हैं। अनेकान्त ने मानव-जाति के विकास में अपूर्व योगदान किया है। अर्थशास्त्र में भी अनेकान्त (372)

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