Book Title: Jain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 404
________________ और समाज की धुरी बनकर रहे। व्यापार और वाणिज्य का संचालन खासतौर पर उनके हाथों में रहा। अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अपरम्पार है। जैनों द्वारा प्राकृत भाषा को महत्व दिये जाने से लोकतन्त्रात्मक और विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था को बल मिला। आधुनिक अर्थव्यवस्था और अहिंसा ___इस अध्याय के अगले परिच्छेद में आधुनिक अर्थव्यवस्था के कई स्वरूपों पर विचार किया गया है। औद्योगिक क्रान्ति और वैज्ञानिक तकनीकी विकास के बीच विश्व की आर्थिक सामाजिक व्यवस्थाओं में युगान्तरकारी परिवर्तन हुए। कहीं पूंजीवाद को ठीक समझा गया तो कहीं समाजवाद और साम्यवाद को ठीक समझा गया। दोनों के अपने-अपने गुण-दोष हैं। जैन दर्शन व्यवस्थाओं के सापेक्षिक मूल्यांकन और श्रेष्ठ के समन्वय पर बल देता है। बीसवीं सदी में महात्मा गांधी सादगी, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर आधारित व्यवस्था पर जोर देते हैं। सक्षम ग्राम-तन्त्र का विचार भी इससे जुड़ा है। गांधीजी के विचार आगमिक जीवन व्यवस्था से बहुत निकट हैं। उनके आश्रम-व्रत, सर्वोदय और ट्रस्टीशिप में अणुव्रतों का आदर्श प्रकट होता है। अर्थशास्त्रियों का ध्यान भी ऐसी व्यवस्था की ओर गया, जिसमें मनुष्य भौतिक विकास के साथसाथ, अपना सर्वांगीण विकास कर सके। उसे बड़ा आकर्षक नाम दिया गया - कल्याणकारी अर्थशास्त्र / परन्तु मानव की भौतिक इच्छाओं के अनन्त आकाश ने सन्तुष्टि, संयम, अपरिग्रह जैसी मूल्यवान बातों को बहुत चतुराई से उपेक्षित कर : दिया। आर्थिक व्यवस्थाएँ बाजार के स्वरूप में अपना जाल फैलाकर प्रचुर भोग, उपभोग व परिभोग के माध्यम से उपभोक्तावाद को स्थापित करने का प्रयास * करती है। इसके लिए वह तरह-तरह के प्रलोभनकारी विज्ञापनों का सहारा लेती हैं। बाजारवादी व्यवस्था की गतिशीलता में औरत एक बहुत बड़े औजार का काम करती है। आश्चर्य यह है कि नारी-मुक्ति की जोश-खरोश से बातें करने वाले इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। उपभोक्तावाद को विश्वव्यापी बनाने के लिए वैश्वीकरण और भूमण्डलीकरण जैसे नये नाम और नारे गढ़े जाते हैं। इस बीच विकसित और धनी देश परमाणु शक्ति का डर बताकर विश्व में भय और हिंसा का माहौल पैदा कर रहे हैं। बारूद के ढेर अथवा हिंसा पर खड़ी व्यवस्थाएँ संसार को कब कितना (375)

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