Book Title: Jain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Author(s): Dilip Dhing
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 372
________________ बाजारवाद __बीसवीं शताब्दी में 'गांधीजी की आर्थिक-व्यवस्था' को छोड़कर किसी भी अर्थव्यवस्था में प्रकृति और संस्कृति का न तो समुचित जिक्र है और न ही कोई फिक्र है। फलस्वरूप व्यवस्था और अर्थव्यवस्था 'मुक्त' रूप से आगे बढ़ती है। चतुर और चालाक व्यक्ति अर्थव्यवस्था की इस मुक्तावस्था को अपने लाभकारी प्रवाह की ओर मोड़ने में सफल होते हैं। इस खुली व्यवस्था में गांधीवाद तो कहीं खो जाता है परन्तु अर्थव्यवस्था को प्रवाहित करने वाली मुद्रा पर गांधी अंकित रहते हैं। उस मुद्रा पर उपनिषद् का अमर वाक्य 'सत्यमेव जयते' और अहिंसा के प्रचारक सम्राट अशोक का धर्मचक्र भी अंकित रहता है। सच! बाजारवादी हर चीज़ का बाजारीकरण करने में कुशल होते हैं। वे उन अमूर्त चीजों का भी व्यावसायीकरण कर देते हैं, जिन पर सारी मूर्त सत्ता टिकी हुई है। यहीं बाजारवाद की ताकत और उम्र बढ़ जाती है। वह पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की राह चलते जरूरत पड़ने पर समाजवाद अथवा इस जैसे अन्य वाद/वादों की लाठी/लाठियाँ भी थाम लेता है। उसे भूमण्डलीकरण, उदारीकृत अर्थव्यवस्था, ढाँचागत समायोजन और वैश्विक ग्राम जैसे नये-नये नाम भी देता है। परन्तु उसकी मूल प्रकृति और संस्कृति में प्रकृति और संस्कृति की रत्ती भर चिन्ता नहीं है। मानव उसके लिए एक संसाधन है और पशु-पक्षी जैसे कोई बेजान वस्तु हो। संवेदना नहीं है, इसलिए वेदना ही वेदना है। . उपभोक्तावाद उपभोगवाद या उपभोक्तावाद बाजारवाद का सशक्त आधार है। इसमें उन तमाम चीजों को मानव जीवन के लिए आवश्यक चीजों के रूप में स्थापित कर दिया जाता है, जिनकी कतई जरूरत नहीं होती है। व्यापक गरीबी के बीच उपभोक्तावाद गैर-जरूरी और खर्चीली चीजों की भूख जगाता है। यह सब करने के लिए. वह ऐसे आकर्षक, लुभावने, तड़कीले, भड़कीले और हैरानियत भरे विज्ञापनों का सहारा लेता है, जो सचाई से कोसों दूर होते हैं। ये विज्ञापन बच्चों और महिलाओं के बाल-सुलभ और नारी-सुलभ सद्गुणों का हरण व हनन कर रहे हैं। इन विज्ञापनों का भारी भरकम खर्च भी अन्ततः उपभोक्ता पर ही पड़ता है। जिस समाज में अधिसंख्य लोगों को शुद्ध पेयजल नसीब नहीं होता हो, उसमें संसाधित पेय (सोफ्ट-ड्रिंक्स) जैसी नितान्त अनावश्यक चीजों की प्यास जगाना सरासर अन्याय है। (343)

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