________________ श्रम और प्राकृतिक संसाधनों का भारी दुरुपयोग होता है। एक तरफ गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, दूसरी तरफ खुले आकाश तले सोते लोग! अपरिग्रह सामाजिक समता, आर्थिक समता और राष्ट्रीय विकास का मूल हेतु है। वह मानव के भीतरबाहर की दरिद्रता मिटाता है और समाज की दरिद्रता का निवारण भी करता है। इस प्रकार भगवान महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रुतियाँ हैं - इच्छाओं का नियमन, समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन, शोषणमुक्त समाज की स्थापना, निष्काम बुद्धि से अपने साधनों का जनहित में संविभाग और आध्यात्मिक-शुद्धि। अहिंसा से अपरिग्रह तक जैसे अहिंसा की साधना के लिए अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है, वैसे ही अपरिग्रह के अनुपालन के लिए अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है। प्रथम व्रत अहिंसा की पूर्णता पंचम व्रत अपरिग्रह में होती है। इन पाँच व्रतों के समुचित पालन के लिए आगम साहित्य में और भी विधि-विधान, त्याग-तप और व्रत-नियम बताये हैं। तीर्थंकर महावीर का आचार दर्शन बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय तक ही सीमित नहीं है, वह सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय से भी आगे बढ़ता है - सर्वजीवहिताय और सर्वजीवसुखाय तक। उनके आचार दर्शन पर आधारित अर्थ-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था संसार की सारी अव्यवस्थाओं को समाप्त करने में पूर्ण सक्षम है। व्यक्तित्व-रूपान्तरण से व्यवस्था परिवर्तन / प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के बीच भी आर्थिक दृष्टि से जिस समय समाज दिशाहीन हो पड़ा था; उस समय भगवान महावीर ने व्रतों की व्यवस्था देकर मानव को परिश्रम, स्वाभिमान, ईमानदारी, त्याग और प्रामाणिकता से जीने की * कला सिखाई। जो व्यवस्थाएँ भारी-भरकम शासकीय और प्रशासकीय खर्च और ढेर सारे राजकीय कर्मचारियों द्वारा ठीक नहीं हो पा रही थी, भगवान महावीर की व्रत-व्यवस्था से उनमें आमूल-चूल परिवर्तन होने लगे थे। वस्तुत: जिन व्यक्तियों और राजसत्ताओं ने व्यवस्थाओं का जिम्मा ले रखा था, उनका व्यक्तित्व भी निष्पक्ष, निभ्रान्त, निष्कपट और प्रामाणिक नहीं था। भगवान महावीर ने व्यक्तित्वरूपान्तरण के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया। जिसका प्रभाव उनके अपने समय में हुआ, बाद में हुआ, आज भी है और युग-युगान्तर तक देश-देशान्तर में होता रहेगा। (313)