________________ परिच्छेद तीन मध्ययुगीन अर्थव्यवस्था ईसा पूर्व 599 में वर्धमान महावीर का जन्म हुआ। 569 ई. पू. में वे साधना के कठिनतम पथ पर अग्रसर हुए थे। दीक्षा के साढ़े बारह वर्ष पश्चात् 557 ई. पू. में उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के बाद से उनके निर्वाण समय 527 ई.पू. तक जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर ने 29 वर्ष, 3 माह और 24 दिन तक निरन्तर विहार किया और देशनाएँ प्रदान की। इस अवधि में उनके द्वारा प्रदत्त देशनाओं ने जन-जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया। उनके जीवन, धर्म, दर्शन और सिद्धान्तों में आत्म-कल्याण से विश्व-कल्याण और स्व-कल्याण से सर्वकल्याण तक का सटीक मार्गदर्शन प्राप्त होता है। उनके सिद्धान्तों का कालिक महत्व है। मौर्य साम्राज्य पर प्रभाव उनके बाद का हर युग, काल और काल-खण्ड उनके जीवन और सिद्धान्तों से प्रेरणा लेता रहा। हर समय के समाज, लोक-जीवन, राज्य और अन्य सभी व्यवस्थाओं पर उनका प्रभाव रहा। समय-समय की आर्थिक व्यवस्थाओं पर भी उनका प्रभाव रहा। भगवान महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् (ई.पू. 367) मगध में चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में बारह वर्ष तक भयंकर दुष्काल पड़ा था। कृषि चौपट हो जाने से लोग मरने लगे और पलायन करने लगे थे। उस समय भगवान महावीर के अनुयायियों ने मानव, मानवता और प्राणी मात्र की रक्षार्थ सहयोग और दानशीलता का परिचय दिया। उन्होंने मौर्य साम्राज्य के अकाल-प्रबन्धन में भी सहयोग किया। सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन मुनि बनने के बाद दक्षिण भारत में प्राकृत को साहित्यिक पद पर प्रतिष्ठित करने में पूर्ण सहयोग प्रदान किया। नेमी चन्द्र शास्त्री ने तीन दृष्टियों से चन्द्रगुप्त का महत्व बताया है - 1. आदर्श और अनुकरणीय शासन प्रबन्ध, 2. प्रजा में सच्चाई और धार्मिक भावों की उन्नति की और 3. कुशल राज्य संचालन के बाद श्रमण जीवन अंगीकार करना और वर्षों तक जैन संघ का नेतृत्व करना (316)