________________ 1. प्रचुर प्राकृतिक संसाधन थे। 2. खेती-बाड़ी मुख्यतः वर्षा पर निर्भर थी। 3. सभी प्रकार के शिल्प व उद्योगों का सन्तोषप्रद विकास था। 4. वस्त्र, काष्ठ, स्थापत्य, धातु आदि सभी प्रकार के उद्योग उन्नति पर थे। 5. श्रम-विभाजन का उल्लेख मिलता है। 6. धातुओं और औषधियों के संयोग से रासायनिक प्रक्रिया द्वारा स्वर्ण बनाया जाता था। 7. विद्याधरों के विमान हुआ करते थे। 8. देशी, अन्तर्देशीय और विदेशी व्यापार भी प्रगति पर था। उस समय भारतीय व्यपारी लंका, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, ब्रह्मा, बैबीलोन और यूनान तक जाते थे।" ___ वाणिज्यिक गतिविधियों का संचालन मुख्यतः वैश्य वर्ग के हाथों में था। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता, भौगोलिक अनुकूलता, उर्वर भूमि, लोगों की सूझ-बूझ, कठोर दण्ड-नीति और प्रशासनिक सुव्यवस्था से देश धन-धान्य से समृद्ध हो गया था। प्रजा खुशहाल व सुखी थी तथा देश में शान्ति का वातावरण था। उस समय के जैन साहित्य में अत्थसत्थ के नामोल्लेखपूर्वक प्राकृत की गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं। चाणक्य के नाम से भी कुछ वाक्य उद्धत है। इससे जान पड़ता है कि प्राकृत में अर्थशास्त्र के नाम का कोई ग्रन्थ अवश्य रहा होगा। अहिंसा समाज-रचना में आचार्य हरिभद्रसूरि का ऐतिहासिक अवदान है। उन्होंने धूर्ताख्यान में खण्डपाणा को अर्थशास्त्र का निर्माता (अत्थसत्थणिम्माया) बताया है। पादलिप्त की तरंमवती के आधार पर लिखी गई नेमिचन्द्र गणि की तरंगलोला में अत्थसत्थ की अनेक गाथाएँ उद्धृत हैं।" कुवलयमालाकहा में आर्थिक व्यवस्था - आचार्य उद्योतन सूरि ने ई. सन् 779 में कुवलयमालाकहा की रचना पूर्ण की। डॉ. प्रेम सुमन ने 'कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन' में तत्कालीन समय के सामाजिक-आर्थिक व भौगोलिक स्थितियों पर प्रकाश डाला है। कुवलयमालाकहा में धनोपार्जन के निन्दित और अनिन्दित साधनों का स्पष्ट भेद किया गया है। निन्दित साधनों के अन्तर्गत जुआ खेलना, सेंध लगाना, लूटना, ठगना (321)