________________ परिच्छेद दो . अपरिग्रह का अर्थशास्त्र आगमिक अर्थतन्त्र की मजबूती का मुख्य आधार अच्छा पर्यावरण और विपुल प्राकृतिक सम्पदा है। भगवान महावीर के सिद्धान्त उस तन्त्र को अधिक मजबूत तथा दीर्घजीवी बना देते हैं। जीवन और जगत् की सारी व्यवस्थाओं के सम्यक् संचालन के लिए आगम आधारित त्रिपदी प्रसिद्ध है - 1. आचार में अहिंसा, 2. विचारों में अनेकान्त और 3. व्यवहार में अपरिग्रह।' अहिंसा और अनेकान्त पर पिछले अध्यायों में विचार किया था। यहाँ अपरिग्रह पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया जायेगा। अर्थशास्त्र का मूल व्रत ___ अपरिग्रह आगमिक अर्थशास्त्र का केन्द्रीय सिद्धान्त है। अहिंसा की साधना के बगैर अपरिग्रह की साधना नहीं हो सकती और अपरिग्रह के बगैर अहिंसा के पथ पर चलना भी अत्यन्त दुष्कर है। अपरिग्रह अहिंसा का सामाजिक और आर्थिक पक्ष है। परिग्रह के कारण से ही व्यक्ति हिंसा करता है, चोरी, असत्य आचरण और अनाचार का सेवन करता है। इसलिए भगवान महावीर कहते हैं - अधिक मिलने पर भी संग्रह-वृत्ति का भाव नहीं रखना चाहिये तथा परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखना चाहिये। जो संग्रह-वृत्ति में ही दिन-रात व्यस्त रहते हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर बढ़ाते हैं। सचमुच! संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल व बन्धन नहीं है। अर्थ, अनेक अनर्थों व समस्याओं को पैदा करता है। . प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच परिग्रह इतना खरनाक है? आगमकार इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि मुच्छा परिग्गहो वुत्तो- वस्तुओं के प्रति ममत्व, मर्छा और आसक्ति ही परिग्रह है। मूर्छा का अर्थ है - जागरूकता का अभाव। मूर्छा में व्यक्ति हित-अहित और अच्छे-बुरे का भेद नहीं कर पाता है। इसलिए भगवान महावीर ममत्व-विसर्जन और निरासक्ति पर बहुत जोर देते हैं। जैन परम्परा ऐसे साधकों और महर्षियों की परम्परा है, जिन्होंने ममत्व और राग का विसर्जन कर दिया और वे वीतराग कहलाये। राग परिग्रह का मूल है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि स्वयं की पकड़ होने पर 'पर' की पकड़ स्वतः छूट जाती है, यह स्थिति अपरिग्रह की है। (307)