________________ कर्मवाद और पुरुषार्थ कर्मवाद जैन दर्शन का बुनियादी सिद्धान्त है। इसके अनेक भेद-प्रभेद हैं और लम्बी-चौड़ी दार्शनिक, वैज्ञानिक और अन्य व्याख्याएँ हैं। सार यह है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा मिलता है और बुरे कर्मों का बुरा।'' इसलिए मानव को सदैव अच्छे कर्म करने चाहिये। इसे आचार क्षेत्र का कार्य-कारण सिद्धान्त कह सकते हैं। अच्छे कर्म करने वाला व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र और बुरे कर्म करने पर वह स्वयं ही अपना शत्रु होता है। कर्मवाद का सिद्धान्त गीता के कर्मयोग से भिन्न भी है और अभिन्न भी। वह सिद्धान्त के रूप में कर्मवाद से भिन्न है। व्यवहार और निष्पत्ति की दृष्टि से उसकी भिन्नता समाप्त हो जाती है। वह मानव को निरन्तर सत्पुरुषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा देता है। कर्मवाद का अकर्म (सांसारिक कार्यों से निवृत्ति) भी कर्म (सम्यक्त्व पराक्रम) की प्रबल प्रेरणा देता है। यहाँ तक निष्क्रियता को मिथ्यात्त्व कह कर उसे छोड़ने की सलाह दी गई है। जैन साधना में सम्यक्-चारित्र (आचरण/पुरुषार्थ) के बगैर अन्तिम लक्ष्य को पाना असम्भव है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त कर्मवाद का एक पहलू है - पुनर्जन्म का सिद्धान्त। जैसे ऋण की अदायगी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है, वैसे ही व्यक्ति अपने कृत कर्मो का फल जन्म-जन्मान्तर तक भोगता है।” चार्वाक को छोड़कर सभी दर्शनों ने पूर्वजन्म या पुनर्जन्म का किसी न किसी रूप में समर्थन किया है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भारतीय जन मानस पर अच्छा आर्थिक प्रभाव यह रहा कि व्यक्ति अनीति की कमाई से बचता रहा जो भले ही वर्तमान में सुख देने वाली प्रतीत हो। महाहिंसाकारी, छल-कपट और धोखे-बाजी से भरे व्यवसायों की श्रृंखला कर्मवादियों में नहीं बढ़ी। चार्वाक और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करने वालों ने ऋण लेकर घी पीने की बात कही। इसका अर्थ यह है कि येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्त करके जीवन में खूब ऐश-आराम और मौज-मस्ती करनी चाहिये। आज के भोगउपभोग और उपभोक्तावाद में ऐसा ही 'अनार्थिक-जीवन' दिखाई पड़ता है। दूसरा अच्छा प्रभाव यह रहा कि यह सिद्धान्त समाज-संरचना का आधार बना। आर्थिक जीवन की जमीनी सच्चाई यह है कि सब व्यक्तियों में समान ... योग्यताएँ कभी नहीं होती हैं। विविध योग्यता और रुचि के व्यक्तियों से समाज (257)