________________ वर्तमान में प्रचलित जातीय और लैंगिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था राजनीतिक है। वह व्यक्ति की अर्हताओं को जात-पाँत के चश्मे से देखती है। जिसे सामाजिक और मानवीय दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। योग्य और योग्यताओं की अवहेलना से व्यवस्थाएँ टूटती हैं और विकास अवरुद्ध होता है। किसी भी सभ्यता और संस्कृति के विकास पर आर्थिक नीतियों का दूरगामी प्रभाव होता है। जो दृष्टिहीन हैं, उन्हें दृष्टि की, चक्षु की आवश्यकता है; दर्पण की नहीं। आरक्षण की राजनीति दृष्टिहीन को दृष्टि की बजाय, दर्पण बाँटती है। आवश्यकता है शिक्षा, साधना और समता के द्वारा जागृति की। समाज में जो व्यक्ति आर्थिक या किसी अन्य दृष्टि से कमजोर या वंचित हैं, उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर राज्य की ओर से विशेष ध्यान दिया जाय, उन्हें योग्यता अर्जित करने के सारे उपादान अल्पशुल्क या बिना शुल्क पर मुहैया कराये जाय। व्यक्ति की योग्यता और गुणवत्ता बढ़ेगी तो सकारात्मक तरीके से समाधान होगा। आज देश को राजनीतिक समाजवाद नहीं, अपितु आध्यात्मिक और मानवीय समाजवाद की आवश्यकता है। मानव द्वारा मानव पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध माहौल बनाने मे मानववाद की अहम् भूमिका रही। मनुष्य के श्रम का शोषण नहीं हो, उसकी निजता और स्वतन्त्रता पर कुठाराघात नहीं हो, इसके स्वर आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर के उपदेशों में गूंज रहे थे और आज भी गूंज रहे हैं। किसी भी प्राणी, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी या मनुष्य की सत्ता और उनके प्राणों की सत्ता का किसी भी रूप में हनन करना अस्तित्व की सहज नैसर्गिक शर्तों के विपरीत आचरण करना है। और सिर्फ हनन ही नहीं, किसी पर अनुचित शासन करना, किसी को पराधीन बनाना, किसी को परिताप देना, उपद्रव करना भी हिंसा के रूप हैं। राजनीतिक और आर्थिक उपनिवेश दूसरों की स्वाधीनता, सह-अस्तित्व, अहिंसा और समता को नकारते हैं। तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा को प्राणातिपात (पाणाइवायं)" कहा। प्राण दस बताये। जिनमें पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, श्वासोच्छवास और आयु को परिगणित किया जाता है। इन दस में से प्राणी के एक भी प्राण को किसी भी रूप में आहत करना प्राणातिपात है। प्राणातिपात-निषेध में मानव और प्राणियों का सहज अभ्युदय, समता और शान्ति के सूत्र छिपे हैं। जीव को 'सत्व' कहना भी महत्वपूर्ण है। सत्व में सार, सत्य और सत्ता के गहन अर्थ प्रतिध्वनित हो रहे हैं। सत्ता के मूल में अहिंसा है। वह अस्तित्व की शर्त है। (278)