________________ परिच्छेद दो अनेकान्त, कर्मवाद और पुरुषार्थ सापेक्षता और अनेकान्त बीसवीं सदी के आरम्भ में विज्ञान की गति रुक-सी गई थी। डॉ. अलबर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धान्त (Theory of Relativity) ने विज्ञान को न सिर्फ गतिशील-प्रगतिशील बनाया, अपितु उसमें अनेक नये आयाम भी जोड़ दिये। सापेक्षता का सिद्धान्त जैन धर्म के अनेकान्त-दर्शन का वैज्ञानिक संस्करण है। सापेक्षता से पूर्व क्या आइंस्टीन ने अनेकान्त जैसे किसी विचार का अध्ययन किया था ? इसका उत्तर 'हाँ' में दिया जा सकता है। आइंस्टीन जैन धर्म से प्रभावित थे। 1932 में इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी' में उन्हें उनके द्वारा चाहे गये वेतन से दस गुना अधिक वेतन पर नियुक्त किया गया। इस राशि में से उन्होंने जर्मनी के एक जैन संस्थान को पाण्डुलिपियों के अनुवाद और प्रकाशन के लिए बड़ी राशि दे दी। 18 अप्रैल 1955 को प्रिंसटन अस्पताल में उन्होंने अपनी नश्वर देह त्यागने से पूर्व निकट खड़ी नर्स से अन्तिम शब्द कहे थे - 'जैन धर्म जैसा कोई विश्व धर्म नहीं है। वे धार्मिक, शान्तिप्रिय, न्यायप्रिय और विशुद्ध शाकाहारी थे। इसलिए यह सहज रूप से कहा जा सकता है कि वे जैन धर्म को न सिर्फ जानते थे, अपितु मानते भी थे। उस समय जर्मनी में जैन धर्म सम्बन्धी शोध और चर्चाएँ विद्यमान थीं। कोई अचरज नहीं कि आइंस्टीन ने सापेक्षता के प्रतिपादन से पूर्व अनेकान्त का अध्ययन-मनन किया हो। आचार्य नानालालजी का मानना था कि अनेकान्त-दर्शन के अध्ययन के बाद ही आइंस्टीन ने सापेक्षता जैसा सिद्धान्त विश्व को दिया। आर्थिक जगत् में अनेकान्त . अनेकान्त-सिद्धान्त के लिए विश्व भगवान महावीर का अत्यन्त ऋणी है। सापेक्षता से हुए परिवर्तन और विकास से विश्व की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं के प्रतिमान बदल गये। परन्तु संसार की दशा में सार्वभौम सकारात्मक परिवर्तन के लिए अर्थशास्त्र में भी एक अनेकान्तिक व्यवस्था की आश्यकता है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की पुस्तक 'आर्थिक विषमताएँ' की प्रस्तावना में लिखा है कि - 'किसी भी मापन विधि में क्रमिकता की सम्पूर्णता अर्थात् सभी वैयक्तिक (253)