________________ और देश को स्वस्थ व समर्थ बनाती है। सेवा की शिक्षा, सेवा के संस्कार और सेवा का व्यवहार राष्ट्रीय विकास के लिए जरूरी है। .. 10. स्वाध्याय : ज्ञान की ज्योतियाँ जलाने के लिए अर्थ की आहुतियाँ देनी पड़ती है। ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा जैसे महान उद्देश्यों के लिए किया गया व्यय लाभ ही लाभ देता है। सभ्यता, संस्कृति, भाषा, इतिहास, कला आदि चीजों को बचाने के लिए स्वाध्याय की परम्परा को आगे बढ़ाना नितान्त आवश्यक है। अनमोल विरासतों को खोकर या बेचकर किसी देश, समाज.या संस्कृति को बचाना नामुमकिन है। उत्तराध्ययन में स्वाध्याय को समस्त दुःखों का विमोचक बताया गया है। अब तो ज्ञानाधारित समाज व ज्ञानाधारित अर्थ-तन्त्र का समय है। 11. ध्यान : ग्रन्थों में भगवान महावीर के लिए यह तो कहा गया कि उन्होंने अपने 4515 दिनों के दीर्घ साधना-काल में 4166 दिन निर्जल उपवास किये। परन्तु यह बात कम कही गई कि उन्होंने 4515 दिनों के दीर्घ साधना-काल में एक भी क्षण बिना ध्यान के व्यतीत नहीं किया। आगम ग्रन्थों में ध्यान के अनेक प्रकार, प्रयोग, प्रभाव और आयाम हैं। मध्यकालीन और वर्तमानकालीन अनेक जैनाचार्यों तथा मनीषियों ने ध्यान पर विपुल सामग्री प्रदान की है।डॉ. सागरमल जैन ने अष्टांग-योग को जैन-दर्शन सम्मत बताया है। आज पूरी दुनिया में न सिर्फ ध्यान का जबर्दस्त प्रचार है, अपितु उसका करोड़ों का कारोबार भी है। प्रबन्ध-शिक्षा में ध्यान एक अनिवार्य प्रायोगिक अध्याय के रूप में जुड़ गया है। अनेक कम्पनियाँ और व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपने कर्मचारियों की कार्य-क्षमता और दक्षता बढ़ाने के लिए ध्यान का सहारा लेने लगे हैं। लोकमंगल, समता और शान्ति के लिए ध्यान का विस्तार शुभ है। परन्तु जिस प्रकार से आज ध्यान का बाजारीकरण हो गया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। अच्छी अर्थ व्यवस्था/समाज-व्यवस्था वह नहीं है, जहाँ हर चीज बिकती हो। 12. व्युत्सर्ग : अनावश्यक और निरर्थक छोड़ना व्युत्सर्ग है। आचार्य अकलंक ने नि:संगता, निर्भयता तथा जीवन के प्रति निरासक्ति को व्युत्सर्ग कहा है। 24 महान् उद्देश्यों के लिए अपने सुखों का त्याग करना भी व्युत्सर्ग है। निष्ठावान सैनिक आत्मोत्सर्ग से भय नहीं रखते हैं। त्याग के बगैर न राष्ट्र की आराधना हो सकती है, न अर्थ की। तपे-खपे बिना कुछ भी पाना सम्भव नहीं है। (250)