________________ नमक उद्योग __ भोजन का स्वाद बढ़ाने के लिए नमक का प्रयोग सदा ही से किया जाता है। औषधियों में भी इसका प्रयोग होता है। जैन ग्रन्थों में नमक को पृथ्वीकायिक बताकर इसके विवेक सम्मत उपयोग के लिए कहा गया है। दशवैकालिक-सूत्र" में इन लवणों का उल्लेख है - - ऊसर भूमि की मिट्टी से प्राप्त। - समुद्र के पानी से प्राप्त (समुद्र क्षार)। - सेन्धा नमक (सौन्धव)। - रोमा (चट्टानी नमक), काला नमक व सफेद नमक। ___ लवण का इतना व्यापारिक महत्त्व था कि 'लवणाध्यक्ष' पदनाम से राज्य में अधिकारी तक होता था। चर्म-उद्योग जैन ग्रन्थों में प्रसंगवश चमड़े के व्यवसाय के उल्लेख मिलते हैं। बष्हत्कल्पसूत्र में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, कुत्ते आदि पालतू पशुओं और मवेशियों तथा जंगली जानवरों के चर्म का उल्लेख मिलता है। आचारांग के अनुसार सिन्ध देश विभिन्न प्रकार के चमड़ों के लिए ख्यात था। वहाँ से पेसा, पेसल, नीले और कृष्ण मृग के चर्म बाहर भेजने की सूचना मिलती है। बाघ, चीते और ऊँट के चमड़ों से चादरें बनाये जाने की भी सूचना मिलती है। इन सूचनाओं का यह अर्थ नहीं कि आत्म-साधना और अहिंसा के पथ पर चलने वाले उनका उपयोग करते थे। असल में ग्राह्य और अग्राह्य को जानकर ही स्वीकार और अस्वीकार किया जा सकता है। चमड़े से जूते भी निर्मित किये जाते थे। यह आवश्यक नहीं है कि चर्म प्राप्ति जीवित पशुओं को मारकर ही की जाय। भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में चर्मकार मृत पशुओं से चमड़ा प्राप्त करता है और उसका वाणिज्यिक उपयोग करता है। आगम-युग में भी चर्मकार थे। वे मृत-पशु को गाँव नगर से बाहर ले जाते, उससे चमड़ा प्राप्त करते और उसका विभिन्न वस्तुओं के रूप में उपयोग करते थे। ऐसे मृत-पशुओं की हड्डियों का भी उपयोग किया जाता है। इस प्रकार चर्मकार व्यावसायिक आधार पर निर्मित समुदाय था और एक अहिंसक सामाजिकआर्थिक व्यवस्था का एक हिस्सा था। (135)