________________ दान और समता विषमता संसार की बड़ी समस्या है। समता उसका समाधान है। आगमग्रन्थों में समता को धर्म और धर्म का सार बताया गया है। समता के कई अर्थ होते हैं। सामाजिक दृष्टि से आर्थिक समता-विषमता पर विज्ञों ने बहुत विचार किया। दान को आर्थिक विषमता के निवारक के रूप में एक घटक माना गया। दान से स्थायी और अस्थायी - दोनों प्रकार के समाधान मिलते हैं। उचित अवसर पर प्राप्त सहयोग से व्यक्ति अपने जीवन को दिशा दे देता है और प्राप्तकर्ता एक दिन स्वयं दाता भी बन जाता है। समाज की व्यवस्था ऐसी बनाई जाय कि सामाजिक निर्धनता कम से कम हो और असहाय स्वनिर्भर बन सके। भगवान महावीर के अनुयायियों ने हर युग में दान-दीप प्रज्वलित रखा। इस सम्बन्ध में भारत के पूर्व न्यायधीश रंगनाथ मिश्र का यह कथन प्रेरणास्पद है - 'मेरी यह मान्यता है कि सेवा शिक्षा, दान, संस्कार-निर्माण आदि का यदि कोई शुभ कार्य कोई संस्था करने जा रही है, तो उसके पीछे किसी-न-किसी जैन बन्धु की प्रेरणा, सहयोग या संयोजन है।" दान से समाज में समता, समरसता, सहकारिता, शान्ति, सह-अस्तित्व और समृद्धि का प्रसार होता है। दान के दस प्रकार - स्थानांग सूत्र में दान के दस प्रकार बतलाये गये हैं - 1. अनुकम्पा दान : कैसा भी अर्थशास्त्र हो, वह मानवीय भावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। अगर वह करता है तो अनर्थशास्त्र बन जाता है। किसी दीन, दुखी या विपदाग्रस्त प्राणी या व्यक्ति को देखकर अनुकम्पित होकर उसकी मदद करना अनुकम्पा दान है। भगवान महावीर में अनुकम्पा को सम्यक्त्व का एक लक्षण बताया है। राजप्रश्नीय सूत्र में राजा प्रदेशी अपनी समस्त सम्पत्ति का एक भाग निर्धनों व संकटग्रस्त व्यक्तियों के लिए नियोजित करता 2. संग्रह दान : इस प्रकार के दान में मानवीयता की भावना या तो कम होती है या नहीं होती है, प्रत्युत् अदला-बदली की भावना होती है। कई लोग इस प्रकार के दान से समाज में अपना नाहक वर्चस्व बना लेने में कामयाब होते हैं। इससे दान की मूल भावना आहत होती है। (215)