________________ निर्धन ब्राह्मण को वस्त्रदान तीर्थंकर महावीर ने वर्षपर्यन्त दान करने के बाद महाभिनिष्क्रमण किया। दीक्षा के वक्त इन्द्र ने उनके वाम-स्कन्ध पर श्रद्धापूर्वक बहुमूल्य दिव्य वस्त्र डाल दिया। प्रव्रज्या ग्रहण करके ज्ञातृखण्ड वन से प्रस्थान करके भगवान आगे बढ गये। मार्ग में उन्हें राजा सिद्धार्थ का परिचित सोम नामक वृद्ध ब्राह्मण मिला। महावीर के वर्षीदान के वक्त वह उन तक पहँच नहीं पाया था। पत्नी के इस आग्रह पर कि महावीर तो स्वर्ण की वर्षा कर रहे हैं और हम दरिद्रतापूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं। जाओ, अब भी जाओ, तीर्थंकर महावीर के पास। उनकी शरण गया हुआ कभी दरिद्र नहीं रह सकता। वह ब्राह्मण खोज करता हुआ वन में वहाँ पहुँचा, जहाँ महावीर साधनारत् थे। उसने महावीर को अपनी व्यथा-कथा बताई। भौतिक रूप से देने के लिए भगवान महावीर के पास देवदूष्य वस्त्र था। उन्होंने वस्त्र का अर्धभाग उसे प्रदान कर दिया। कुछ समय बाद महावीर के स्कन्ध से वस्त्र का शेष अर्धभाग भी गिर पड़ा। सोम उसे भी ले आया। उसका वह वस्त्र एक लाख दीनार में बिका। इससे उसकी दरिद्रता समाप्त हो गई। तीर्थंकर महावीर के जीवन की यह घटना प्रेरणा देती है कि व्यक्ति अपने निजी सुखों का त्याग करके भी करुणा-भाव और सहयोग-वृत्ति को बनाये रखें। सामाजिकता और मानवीयता के ये आधारभूत घटक हैं। दान प्रथम - धर्म के चार अंगों - दान, शील, तप और भाव' में दान को प्रथम स्थान दिया गया है। दान को श्रावक का परम-धर्म", प्रमुख कर्त्तव्य तथा कल्याण का सरलतम उपाय भी बताया गया है। जो व्यक्ति अपने दानादि . सामाजिक और आर्थिक कर्तव्यों को नहीं समझता है, वह धर्म के मंगल-पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता है। दान हमें आदान-प्रदान की शिक्षा देता है। दान विसर्जन है, वह हमें अर्जन और सर्जन की प्रेरणा देता है। दान ही ऐसा धर्म है जिसमें प्रत्यक्ष तौर पर द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय लाभ होता है। यह लाभ तत्काल होता है और सदियों तक होता रहता है। दान से स्थापित/संचालित योजना, परियोजना अथवा प्रकल्प दाता के दिवंगत होने के पश्चात् भी युगों तक समाज के लिए लाभकारी बने रहते हैं। चिरकालीन बहुपक्षीय लाभ ही दान का अर्थशास्त्र है। (213)