________________ बना रहता है। ऋणों की स्वीकृति ऋणों की वापसी की सुनिश्चतता के आधार पर होनी चाहिये। देश के नागरिकों की व्यय-आदतों का प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। 14. हैसियत के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करें : यह बात भी पूर्व बिन्दु के सन्दर्भ में समझनी चाहिये। जो व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखे बगैर वस्त्राभूषण खरीदता, संग्रह करता और धारण करता है, वह लोगों की हँसी का पात्र बनता है और अन्ततः गरीबी को न्यौता देता है। 15. धर्मश्रवण : जीवन व्यापारों से परिश्रान्त मानव को चाहिये कि वह धर्म की . शरण लेता हुआ स्वयं को शान्त, सन्तुलित, स्वस्थ और प्रसन्न रखें। जीवन की जानी-अनजानी राहों में पग-पग पर भटकने के निमित्त मिलते हैं। उनसे बचने का उपाय है - विवेक; जो निरन्तर धर्मश्रवण और आत्म-साधना से प्राप्त होता है। धर्म-श्रवण प्रायः सामूहिक रूप में होता है, इसलिये इसका सामाजिक आर्थिक महत्व भी है। 16. अजीर्ण होने पर भोजन न करें : जीवन में जिस स्वास्थ्य और सामर्थ्य की आवश्यकता धर्म-पथ पर चलने के लिए होती है, संभवतः उससे अधिक अर्थोपार्जन के लिए होती है। इसलिए अधिकांश नियम, धर्म और धन दोनों की प्राप्ति के लिए महत्वशाली हैं। जैन धर्म तप प्रधान है। पहली बात तो यह है कि अजीर्ण हो ही नहीं और हो जाय तो भोजन नहीं करना ही उसका इलाज है। धन-संग्रह के अतिरेक पर भी इसी तरह विराम लगाना चाहिये। धन का अजीर्ण भी नहीं होना चाहिये। 17. नियत समय पर प्रमाणोपेत आहार करना : जैनाचार में आहार के लिए नियत समय दिन का समय है। वर्तमान समय में सामूहिक रात्रि भोजों के नाम पर जो आडम्बर, प्रदर्शन किया जाता और पैसा बहाया जाता है, वह समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के लिए चिन्तनीय है। इन भोजों में खानेपीने की वस्तुएँ परस्पर विरोधी स्वभाव की और अधिक संख्या में होती हैं। व्रती गृहस्थ ऐसी अनार्थिक व फिजूल क्रियाओं पर अंकुश लगा सकते हैं। 18. अविरोधी भाव से त्रिवर्ग की साधना करें : भारतीय मनीषियों ने चार पुरुषार्थ पर बल दिया है। इनमें धर्म, अर्थ और काम को त्रिवर्ग माना गया है। मोक्ष को धर्म में समाविष्ट माना गया है। तीनों परस्पर आश्रित भी हैं और (234)