________________ सिद्धान्त व दर्शन का अर्थशास्त्र के साथ सह-सम्बन्ध - जैन आचार अर्थशास्त्र के अधिक निकट है और जैन दर्शन विज्ञान के अधिक निकट है। दर्शन की सार्थकता उसके आचार में होती है। दर्शन आचार का अन्तःशरीर होता है। जो दर्शन किसी व्यक्ति या विषय का व्यक्तित्व या स्वरूप नहीं बदल सके, वह दर्शन ही क्या। दर्शन अनुपयोगी नहीं होता है। सिद्धान्त और दर्शन की अर्थशास्त्रीय उपयोगिता पर यहाँ चर्चा की जा रही है। तत्त्वज्ञान जैन दर्शन के मूलतः दो तत्त्व हैं - जीव और अजीव।' अर्थशास्त्र के दो तत्त्व है - अर्थ और मनुष्य। जीव चेतना सम्पन्न है, वह सुख-दुःख का वेदन करता है। संसार उसके सुख व दु:ख की सकारात्मक और नकारात्मक तरंगों से प्रभावित होता है। संसार उसकी नकारात्मक तरंगों से पीड़ित नहीं हो, इसके लिए अहिंसा का सिद्धान्त उपयोगी बन पड़ता है। यह सिद्धान्त आर्थिक जगत में मनुष्य को केन्द्र में रखता है तथा मनुष्येत्तर प्राणियों के प्रति भी करुणा का भाव रखता है। दसरी दृष्टि से नौ तत्व हैं - जीव-अजीव के अलावा पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। इनमें से कुछ तत्वों का अर्थशास्त्रीय मूल्य है। पुण्य तत्त्व : जो शुभ, श्रेष्ठ, पुनीत व प्रशस्त है, वह पुण्य है। पुण्य जीवन में सुख पैदा करता है। पुण्य के नौ प्रकार बताये गये हैं - 1. अन्न पुण्य : अन्न जीवन का प्राण है। गरीब अमीर सबकी भूख वह शान्त .. करता है। रईस कोई सोने-चाँदी या हीरे-मोती नहीं खाते। अन्न (आहार) _ दिलों को जोड़ता है। समाज में समरसता पैदा करता है। लोकाचार का वह मुख्य माध्यम है। ऐसे जीवनदायी अन्न का अपमान कभी नहीं करना चाहिये। जो व्यक्ति आधा खाते और आधा फेंकते हैं, जूठन छोड़ते हैं, वे बड़ा मानवीय, राष्ट्रीय व आर्थिक अपराध करते हैं। एक तरफ भूख से लाखों लोग छटपटते हों, दूसरी ओर माल मिठाई को नालियों में फेंकने के लिए छोड़ देना कतई उचित नहीं है। 2. पान पुण्य : अन्न जीवनदायी है, उससे पूर्व जल की जीवनदायिता है। विज्ञान . और उपभोक्तावाद के बढ़ने से जल का अथाह अपव्यय मानव करने लगा है। . . धरती के ऊपर और भीतर के जल भण्डार-स्थलों को मानव ने भारी क्षति (243)