________________ 24. व्रती और ज्ञानीजनों की सेवा : आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करनी चाहिये। गुण और योग्यता में श्रेष्ठजनों का मान-सम्मान करने वाले विकास की दौड़ में सदैव आगे रहते हैं। जिनके पास ज्ञान, आचार और अनुभव हैं, उनकी सेवा सुश्रूषा से सद्गुणों का प्रसार होता है। आगमों में स्पष्ट निर्देश हैं कि उम्र में लघु, परन्तु ज्ञान और आचार में श्रेष्ठतर आदरणीय और वन्दनीय होता है। 25. उत्तरदायित्व निभाना : भारतीय संस्कृति में चार आश्रम बताये गये हैं। गृहस्थाश्रम पर सभी आश्रम आश्रित होते हैं। इस प्रकार गृहस्थ पर चौतरफा जिम्मेदारियाँ होती हैं। गृहस्थ अपने माता-पिता व परिवारजनों के प्रति कर्तव्यों को नहीं भूलें तथा गुरुजनों व समाज के प्रति कर्तव्यों को भी याद रखें। वह अपने जीवन को इतना साधे कि सारे उत्तरदायित्वों को यथासमय भलीभाँति निभा सकें। 26. दीर्घदर्शी : गृहस्थाचार का ठीक प्रकार से पालन करने के लिए दूरदर्शिता अत्यन्त जरूरी है। भगवान महावीर के परम भक्त राजा श्रेणिक के पुत्र और मगध के महामंत्री अभयकुमार को बहुत बुद्धिमान और दीर्घदर्शी माना जाता है। वह हर कार्य को दूरदर्शितापूर्वक बहुत सोच विचार कर करता था। आज भी जैन गृहस्थ अपनी व्यवसायिक बहियों व लेखा-पुस्तकों में लिखकर अभयकुमार जैसी बुद्धि की कामना करते हैं। . 27. विशेषज्ञ : गृहस्थ को अपने कार्यो में निष्णात होना चाहिये। वह अपनी व्यावसायिक निपुणता से लाभ भी प्राप्त करता है और यश भी। वह जीवन और व्यापार में नित नये प्रयोग करता है। उसे व्यवसाय के अलावा धर्म-विधि, रीति-रिवाज सबमें कुशल होना चाहिये। 28. कृतज्ञ : कृतज्ञता बहुत बड़ा गुण है और कृतघ्नता बहुत बड़ा अवगुण। सद्गृहस्थ में यह भावना गहरे तक होनी चाहिये कि वह उपकारी के उपकार को मानें। जीवन में उपकारियों के प्रति कृतज्ञ बना रहे। स्वयं किसी पर उपकार करें तो उसे गिनाये नहीं। 29. लोकप्रिय : एक सद्गृहस्थ से यह आशा की जाती है कि वह कोई कार्य ऐसा नहीं करें जिससे उसकी अपकीर्ति हो। वह अपने कार्यों और सद्गुणों से सबका (236)