________________ 6. चोरी चोरी नहीं करने को भगवान महावीर ने अणुव्रत और महाव्रत की संज्ञा दी है। चौर्य-कर्म आर्य-कर्म (श्रेष्ठ व्यक्तियों का कार्य) नहीं है। तीर्थंकर महावीर ने बिना दी हुई किसी की वस्तु लेने का स्पष्ट निषेध किया है। यहाँ तक बिना आज्ञा के दाँत कुरेदने का एक तिनका तक नहीं लेना चाहिये। चोरी कई रूपों में की जाती हैं। इसलिए प्रश्नव्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम बताये गये हैं। चोरी के व्यसन का त्याग करने वाला सर्वत्र विश्वसनीय और प्रामाणिक बना रहता है, वह अपने व्यापार और वाणिज्य को चहुँ ओर फैलाता है और खूब लाभ प्राप्त करता है। आर्थिक-जगत् में चोरी का कोई स्थान नहीं है। चोरी व्यापार और व्यवहार के लिए प्रत्यक्ष रूप से हानिकारक है। 7. जुआ वसुनन्दी ने जुआ व्यसन को प्रथम क्रम पर रखा है। सम्भव है उस समय में जुआ वृत्ति का प्रसार अधिक हो गया हो। जुआ कभी किसी का नहीं हुआ। श्रमहीनता, निष्क्रियता, आलस्य, कोरी भग्यवादिता और रातोंरात धनपति बनने की मिथ्या लालसा में आदमी जुआ और द्यूत-क्रीड़ा की बुरी लत में बुरी तरह फँस जाता है। जुआ एक नितान्त अनुत्पादक कर्म है। इसलिए यह राष्ट्र के लिए अहितकारी तथा गरीबी की जनक है। आर्थिक उन्नति और समाज उत्थान में यह बड़ा बाधक तत्व है। मेहनत और कर्तव्य भावना से धनोपार्जन का आनन्द कुछ और ही होता है। जुआरी उस आनन्द से वंचित रहता है। जुआ से स्थायी सुखसमृद्धि नष्ट हो जाती है। जुआ की बुरी लत ने कई व्यक्तियों और परिवारों को कंगाल कर दिया। यहाँ तक जुआ से सत्ताएँ भी लूटी और समाप्त हुई है। शौक से जुआ खेलना भी अच्छी बात नहीं है। ऐसा करने से जीवन के अनमोल क्षण तो नष्ट होते ही हैं, एक गलत आदत को भी प्रोत्साहन मिलता है। जो व्यक्ति पुरुषार्थ और श्रम में आस्था नहीं रखते हैं, वे ऐसी स्वप्निल कुटेवों के शिकार होकर जीवन के अनमोल समय, धन और प्रतिष्ठा को नष्ट कर बैठते हैं। समाज और देश पर / भारभूत बनकर जीते हैं। अन्य व्यसन इन सप्त व्यसनों के अलावा भी वर्तमान में अनेक कुव्यसन चल पड़े हैं। जो समाज और देश के यौवन, धन और स्वास्थ को चौपट कर रहे हैं। धूम्रपान, (230)