________________ परिच्छेद तीन व्यसन निषेध और मार्गानुसारी का आर्थिक पक्ष जैन धर्म आचार प्रधान धर्म है। आचार को समस्त अंगों का सार बताया गया है। जैन साधना पद्धति में धर्म के दो रूप बताये गये हैं - श्रुतधर्म (तत्वज्ञान) और दूसरा चारित्रधर्म (नैतिक आचार)। चारित्र धर्म दो प्रकार का बताया गया हैं - अनगार और आगार धर्म। यहाँ आगार धर्म का सम्बन्ध गृहस्थाचार से है। आगार शब्द गृह या आवास के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है पारिवारिकसामाजिक जीवन / इसमें आर्थिक जीवन भी समाविष्ट है। जिसका परिपालन घर, परिवार, समाज और व्यवसाय के दौरान किया जा सके, वह आगार धर्म है। आगम साहित्य में उपासकदशांग और आवश्यक सूत्र के अतिरिक्त आचारांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, अन्तकृतदशा, ज्ञाताधर्मकथांग, प्रश्नव्याकरण, विपाक-सूत्र, राजप्रश्नीय, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध आदि ग्रन्थों में गृहस्थाचार के बारे में विशेष विवरण मिलता हैं। गृहस्थाचार के समुचित अनुपालन के लिए जैनाचार्यों ने आगम ग्रन्थों को आधार मानते हुए व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी अनेक नियमउपनियम बनाये हैं। ऐसे नियमों-उपनियमों पर विमर्श करना भी यहाँ समीचीन होगा। ____ आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, अमृतचन्द्र, समन्तभद्र, अमितगति, पं. आशाधर आदि ने गृहस्थाचार को समुन्नत बनाने के लिए आगमों के आधार पर आचारसंहिताएँ बनाई हैं। इनमें सप्त-व्यसनों का त्याग, श्रावक के 21 गुण और मार्गानुसारी के 35 नियम जैन परम्परा में काफी चर्चित और प्रचलित हैं। इनमें उत्तम गृहस्थ ही नहीं, एक श्रेष्ठ नागरिक और श्रेष्ठ मनुष्य के लिए आवश्यक नियमों व गुणों का भी समावेश हो जाता हैं। सप्त-व्यसन वसुनन्दि श्रावकाचार' में सात कुव्यसनों के त्याग को गृहस्थाचार की भूमिका के रूप में अभिहित किया गया है। आचार्य वसुनन्दि ने लिखा - जूयं मजं मंसं वेसा पारद्धि चोर-परयारं। दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि॥ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वसुनन्दी के इस क्रम में मैंने किंचित परिवर्तन किया है। परिवर्तित क्रम में सप्त व्यसनों पर विमर्श किया जा रहा है। (226)