________________ दान पर इस विमर्श से यह निष्कर्ष सहज रूप से निकाला जा सकता है कि दान केवल धनादि मूर्त चीजों का ही नहीं होता है, अपितु मूर्त और अमूर्त कई रूपों और व्यवस्थाओं में व्यक्ति अपने दान-धर्म की आराधना कर सकता है। दान का व्यापक अर्थ है - सहयोग का जीवन जीना। अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी जीना। महान उद्देश्यों के लिए जीना। आगमों में दान और दानियों की अपार महिमा गाई गई है। __कई सन्दों में व्यक्ति का दान इतना प्रभावशाली होता है कि वह अर्थव्यवस्था में क्रान्तिकारी भूमिका निभा सकता है। समाज में रोजगार, स्वावलम्बन, आत्म-निर्भरता की प्रतिष्ठा करने वाले दानों का विशुद्ध रूप से अर्थशास्त्रीय महत्व है। इनके अलावा सरकार जनता पर कर लगाती है, यह दान का राजकीय रूप है। व्यक्ति को नियमानुसार कर चुकाना चाहिये। सामाजिक-समता, सांस्कृतिक-उन्नति, संसाधनों के समान वितरण, विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय-विकास में दान, संविभाग व सहयोग का महत्व कभी कम नहीं हो सकता। गृहस्थाचार और राष्ट्र-धर्म गृहस्थाचार के नियमों व उपनियमों पर चर्चा से यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि श्रेष्ठ मानव और आदर्श नागरिक बने बगैर कोई भी व्यक्ति अच्छा व सच्चा धार्मिक व्यक्ति नहीं बन सकता। धर्म परलोक की वस्तु नहीं, अपितु इस जीवन को, समाज, देश व दुनिया को बेहतर बनाने की साधना का नाम है। सद्गृहस्थ ग्राम/नगर से लगाकर देश तक के प्रति अपने कर्तव्यों को किसी न किसी रूप में निभाता है। उसका यह कर्तव्य-निर्वहन उन सब चीजों को सुव्यवस्थित करता हैं, जिनमें मुख्यतः अर्थव्यवस्था सम्मिलित है। कर्त्तव्य-परायणता अर्थ-तन्त्र का मेरुदण्ड है। जिस देश, समुदाय या क्षेत्र में कर्तव्य-परायण नागरिक निवास करते हों, वह देश, समुदाय या क्षेत्र निरन्तर विकास करता है। आगम-ग्रन्थों में जगह-जगह कर्त्तव्यनिष्ठा के उद्धरण और उदाहरण मिलते हैं। वहाँ कहा गया है कि जो अनर्थ-रूप और अकर्त्तव्य है, उनका आचरण नहीं करना चाहिये। उपासकदशांग के दस श्रावकों का जीवन कर्मठता का जीवन्त प्रतीक है। जो व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ होता है, वह सामाजिक, लौकिक, राष्ट्रीय जैसे सभी धर्मों की आराधना करता है। स्थानांग सूत्र में इस प्रकार के दस धर्म बताये गये हैं।24 (219)