________________ परिच्छेद एक अणुव्रतों का अर्थशास्त्र अणुव्रत स्वरूप जैन धर्म में सद्गृहस्थ और सद्गृहिणी को श्रावक और श्राविका कहा गया है तथा चतुर्विध संघ के चार स्तम्भों में से दो स्तम्भ श्रावक और श्राविका के हैं। इस प्रकार संघीय व्यवस्था का आधा भार गृहस्थ वर्ग पर है। यदि व्यवस्था की दृष्टि से देखा जाय तो श्रमण वर्ग श्रमणीय मर्यादाओं में जीता है तथा उनकी संख्या भी थोड़ी होती है, इसलिए संघ का अधिकांश दायित्व श्रावक-श्राविकाओं पर ही है। सामुदायिक प्रबन्धकीय कौशल का अभ्यास और प्रयोग गृहस्थ संघीय व्यवस्थाओं में सहयोग करके करता है। भगवान महावीर ने गृहस्थाचार के रूप में श्रावक के लिए बारह व्रतों की व्यवस्था की है। इनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा-व्रत हैं। उपासकदशांग के अनुसार गुणव्रत और शिक्षाव्रत अलग-अलग नहीं होकर सात शिक्षाव्रत कहते हुए गुणव्रतों का उनमें समावेश कर लिया गया है।' ____ अणुव्रत पनि छोटे-छोटे व्रत / ये छोटे-छोटे व्रत व्यक्ति को बड़ा से बड़ा बनाने में सक्षम हैं। छोटे-छोटे नियम आदमी को पूर्णता प्रदान करते हैं और पूर्णता कोई छोटी बात नहीं होती है। भगवान महावीर की सम्पूर्ण आचार व्यवस्था समझ और प्रज्ञा पर अवलम्बित है। इसलिए वहाँ अनाग्रह तथा निर्णय की स्वतन्त्रता विद्यमान है। आगम साहित्य में कहीं भी ऐसी भाषा नहीं है, जहाँ साधक को उसकी इच्छा के विपरीत साधना-मार्ग पर अग्रसर होने के लिए कहा गया हो। . व्रत व्यवस्था में भगवान महावीर ने क्रमबद्ध और सूक्ष्म चिन्तन दिया है। हिंसादि पाप तीन करण और तीन योग से होते हैं। तीन करण हैं - पाप स्वयं नहीं करना, पाप दूसरों से नहीं करवाना और पाप का अनुमोदन नहीं करना। तीन योग हैं - मन, वचन और काया। इनके कुल 49 भेद बनते हैं। श्रावक के लिए अधिकतर व्रत दो करण तीन योग से अनुपालनीय बताये गये हैं। कुछ व्रत एक करण एक योग से अनुपालनीय हैं। इन व्रतों का आचरण समाज व देश के लिए एक योग्य नागरिक का निर्माण करना है। अर्थशास्त्रीय दृष्टि से वह नागरिक सीमित संसाधनों का उपयोग करने वाला होता है। न्यूनतम लेना, अधिकतम देना और श्रेष्ठतप जीना' उसके जीवन का सूत्र होता है। (175)