________________ आगम-ग्रन्थों में प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार बताये गये हैं। ग्रन्थों में व्रतों के निरतिचार पालन पर जोर दिया गया है। स्थानांग सूत्र में व्रत के खण्डन की चार कोटियाँ बताई गई हैं - 1. अतिक्रम - व्रत की परिधि तोड़ने का मानसिक संकल्प। 2. व्यतिक्रम - व्रतों को तोड़ने के लिए सामग्री जुटाना। 3. अतिचार - व्रत का आंशिक रूप से खण्डन। 4. अनाचार - व्रत का भंग हो जाना। अतिचार तक जो दोष लगते हैं; वे नहीं लगे, इसकी सावधानी रखनी चाहिये। अतिचार तक लगे दोषों से व्रत खण्डित नहीं होता है। अनाचार से वह खण्डित हो जाता है। बारह व्रतों का अर्थशास्त्रीय अध्ययन 1. अहिंसा __ अहिंसा प्रथम और प्रमुख अणुव्रत है। इस व्रत के अन्तर्गत श्रावक स्थूल हिंसा का त्याग करता है। इस व्रत का नाम 'स्थूल प्राणातिपात विरमण' है। श्रावक स्थूल प्राणातिपात के अन्तर्गत संकल्पपूर्वक त्रस निरपराध प्राणियों की हिंसा का दो करण तीन योग से त्याग करता है। हिंसा के चार प्रकार बताये गये हैं - संकल्पजा, आरम्भजा, उद्योगिनी और विरोधिनी। संकल्पजा हिंसा : अहिंसा व्रती इरादतन हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है। इससे समाज में प्रतिशोध की भावना कभी नहीं पैदा होती है तथा तोड़-फोड़ और विनाश पर अंकुश लगता है। एक व्यक्ति इरादे से कोई अपराध करता है और एक व्यक्ति से भूलवश कोई पाप हो जाता है; धर्म और कानून दोनों दृष्टियों से इरादतन अपराध करने वाला अधिक सजा का भागी होता है। आरम्भजा हिंसा : जीवन व्यवहार में नहीं चाहते हुए भी आरम्भजा हिंसा होती है। श्रावक के लिए वह छूट योग्य होती है। पाप कम से कम हो, इसका विवेक श्रावक रखता है। उद्योगिनी हिंसा : जीविकोपार्जन के लिए व्यवसाय और उद्योग संचालन में जो हिंसा होती है, उसका परित्याग व्रती के लिए संभव नहीं है, इसलिए वह छूट (176)