________________ 9. सामायिक-व्रत श्रावक अपने नौवें व्रत के अन्तर्गत दो करण तीन योग से निर्धारित समय के लिए समस्त प्रकार के पापकारी कार्यों व गतिविधियों से निवृत्त होकर समता की साधना करता है। जैन परम्परा में सामायिक का बहुत मूल्य है और प्रचार है। जैन ग्रन्थों में पूणिया नामक निर्धन गृहस्थ की सामायिक साधना की स्वयं तीर्थंकर महावीर प्रशंसा करते हैं। मगध सम्राट श्रेणिक. जब पूणिया की सामायिक खरीदना चाहता है तो उसके सम्पूर्ण राज्य की सम्पत्ति भी उस सामायिक को खरीदने के लिए अपर्याप्त मानी गई थी। यह एक उदाहरण है सामायिक के अपरम्पार महत्व का। वस्तुतः सामायिक एक आध्यात्मिक साधना है। वह क्रयविक्रय की वस्तु नहीं है, जिसे खरीदा या बेचा जा सके। संसार की भौतिक सम्पदाओं की तुलना आध्यात्मिक मूल्यों से नहीं हो सकती। सामायिक करते समय साधक बत्तीस दोषों को टालता है। उनमें दस मन के, दस वचन के और बारह काया के हैं। मन के दस दोष हैं - अविवेक, कीर्ति की लालसा, लाभेच्छा, अहंकार, भय, निदान (फलाकांक्षा), फल प्राप्ति में सन्देह, रोष, अविनय तथा अबहुमान / दस वचन के दोष हैं - कुवचन, अविचारित वचन, स्वच्छन्द वचन, संक्षेप या अयथार्थ वचन, कलहकारी वचन, विकथा, हास्य, अशुद्ध उच्चारण, निरपेक्ष वचन और अस्पष्ट वचन / बारह काया के दोष हैं - कुआसन, अस्थिर आसन, दृष्टि की चंचलता, सावध क्रिया, आलम्बन, अंगों का आकुंचन-प्रसारण, आलस्य, अंगों को मोड़ना, मैल उतारना, शोक-मुद्रा में बैठना, निद्रा और सामायिक में दूसरों से सेवा करवाना। इनके अलावा जिन पाँच अतिचारों से बचते हुए सामायिक की आराधना करनी चाहिये, वे निम्न हैं - 1. मनोदुष्प्रणिधान : कमजोर या आधे-अधूरे मन से सामायिक करना तथा सामायिक में मन की कमजोरियों का पोषण करना। मन के दोषों के प्रति असजग रहना। 2. वचनदुष्प्रणिधान : वचन का सम्यक प्रयोग नहीं करना, अशुद्ध पाठ उच्चारण करना तथा वचन के दोषों को टालने के प्रति असावधान रहना। 3. कायदुष्प्रणिधान : बारह काया के दोषों को नहीं टालना। (200)