________________ 12. अतिथि संविभाग व्रत जिसके आने की कोई तिथि नहीं हो अथवा जो अल्प-तिथि यानि थोड़े समय के लिए आता है, वह अतिथि कहलाता है। गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह अपने लिए बनाई गई तथा अपने अधिकार की वस्तुओं का अतिथि के लिए संविभाग करें। ग्रन्थों में अनगार (जिनका कोई घर नहीं हो तथा एक ही जगह पर स्थायी आगार यानि ठहराव नहीं हो) को उत्कृष्ट अतिथि बताया गया है। यह उत्कृष्टता इसलिए है कि अनगार समाज और संसार में प्रेम, शान्ति और अहिंसा के दूत होते हैं। वे चलते-फिरते तीर्थ होते हैं। उनके सहयोग का अर्थ है अहिंसा और संयम का पोषण। श्रावकप्रज्ञप्ति में श्रावक और श्राविका को भी अतिथि का दर्जा दिया गया है। इन चारों के अलावा आधुनिक विद्वानों ने सभी प्रकार के अतिथियों दीन-दु:खी, वृद्ध, रोगी आदि के लिए भी संविभाग का समर्थन किया है। इन अतिथियों का श्रावक भावपूर्वक सत्कार करें। उन्हें आहार, औषध, आवास और अन्य आवश्यक निर्दोष वस्तुएँ प्रदान करें। अतिथि संविभाग में श्रावक को दानविधि, द्रव्य, दाता और पात्र का विवेक रखना चाहिये। इस व्रत के अतिचार श्रमण को लक्ष्य में रखकर बताये गये हैं। वे निम्न हैं2 - 1. सचित्तनिक्षेपण : श्रमण-श्रमणियों को देने योग्य आहार में सचित्त वस्तु . मिला देना, जिससे आहार दान योग्य नहीं रहे। 2. सचित्तपिधान : श्रमण-श्रमणियों को देने योग्य आहार सचित्त से ढंक देना, जिससे आहार बहराया नहीं जा सके। 3. कालातिक्रम : भिक्षा के समय व्यतीत होने के बाद भोजन तैयार करना / जिन घरों में सायंकालीन भोजन सूरज ढलने के बाद तैयार होता है, वहाँ से सायंकालीन आहार साधु-साध्वी नहीं ले सकते हैं। 4. परव्यपदेश : देने की भावना नहीं होने पर अपनी वस्तु पराई बताना परव्यपदेश 5. मात्सर्य : अनादर, अहंकार, ईर्ष्या अथवा कृपणतापूर्वक दान देने से मात्सर्य दोष लगता है। __ संविभाग का अर्थ है - सम + विभाग। सद्गृहस्थ को अतिथि और योग्य पात्र के लिए अपने आहार, धन, साधन और संसाधन आदि का उचित भाग करना चाहिये। गृहस्थ के यथासंविभाग-व्रत का अन्य व्रतों की अपेक्षा विशेष महत्व (205)