________________ को सार्थवाह की आज्ञा का पालन करना पड़ता था। दुष्कर और विकट राहों पर दोदो सार्थवाह भी सार्थ का नेतृत्व करते थे। पाँच प्रकार के सार्थ बताये गये :1. भण्डी : इसमें माल ढोने के लिए शटक आदि यान होते थे। 2. बहलिका : इसमें भारवाही पशु ऊँट, घोड़े, बैल, खच्चर आदि होते थे। 3. भारवह : इस प्रकार के सार्थ में यात्री अपना भार स्वयं ढोते थे। 4. औदारिका : इसमें श्रमिकों का सार्थ होता था, जो उनकी आजीविका के लिए घूमते थे। 5. कार्याटिका : इसमें भिक्षुओं और साधु-साध्वियों का सार्थ होता था। व्यापारी समाज ने सार्थ जैसी महत्वपूर्ण व्यवस्था द्वारा समाज के अनेक उत्साही युवकों को देशान्तर की यात्रा कराई है। उन्हें आजीविका प्रदान की है। उनमें पुरुषार्थ जगाया है। अभय, सुरक्षा, आजीविका, पूंजी, मार्गदर्शन आदि के लिए सार्थ एक निरापद सहारा था।" तत्कालीन समय के व्यापार, व्यवसाय और उद्योगों के विकास में सार्थ का अत्यधिक महत्त्व था। सार्थ अपने प्रस्थान से पूर्व अनेक तैयारियाँ करता था। ऐसी यात्राओं से पूर्व सार्थों को राजाओं से भी अनुमति लेनी पड़ती थी तथा राजा बीहड़ और भयानक रास्तों में सार्थों की सुरक्षा के लिए अपने सुरक्षाकर्मी भी नियुक्त करता था। सार्थ स्वयं भी सुरक्षा के व्यापक प्रबन्ध करते थे। विपुल पाथेय साथ लेकर चलते थे। उदार धार्मिक वृत्ति वाले सार्थवाह अपने सहयात्रियों के लिए खान-पान और सुख-सुविधाओं का पूरा खयाल रखते और बदले में कुछ भी शुल्क नहीं लेते। प्रस्थान से पूर्व भी निर्धन और बेरोजगार यात्रियों को अपने सार्थ में सम्मिलित होने का आमन्त्रण अवश्य देते और उन्हें व्यापार करने का प्रेरक सुअवसर प्रदान करते।4 सार्थवाहों की यह सहयोग व सहकारिता की भावना सामाजिक और व्यावसायिक उन्नति में बहुत सहायक हुई। आज व्यवसाय जगत् में गलाकाट स्पर्धा करने वालों को प्राचीन भारत के सार्थवाहों से शिक्षा लेनी चाहिये। महिला उद्यमी महिलाएँ व्यवसाय अब करने लगी हो, ऐसी बात नहीं है। आगम-युग की नारियाँ भी व्यवसाय में निपुण थी। खेती-बाड़ी, पशुपालन, गृह और कुटीर उद्योगों में तो महिलाओं का प्रत्यक्ष महत्त्वपूर्ण योगदान रहता ही था। परन्तु बड़े काम धन्धों (146)