________________ परिच्छेद छः आयात-निर्यात भारत प्रचुर प्राकृतिक वैभव सम्पन्न और उन्नत वाणिज्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। भारत का विदेशी व्यापार भी तत्कालीन समय के अन्य देशों के मुकाबले बढ़-चढ़ कर था। जैन आगम ग्रन्थों में प्राचीन भारत की यह तस्वीर हमें देखने को मिलती है। ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार राज्य निर्यात को प्रोत्साहित करता था तथा आयातित वस्तुओं पर कर लगाता था। इससे अनेक बातें फलित होती हैं। यथा - उस समय विपुल उत्पादन होता था तथा देशज खपत के बाद भी निर्यात योग्य बहुत सारी वस्तुएँ होती थीं। निर्यात के प्रोत्साहन से राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनती थी। जो वस्तुएँ राज्य में उत्पन्न नहीं होती या अपर्याप्त होती, निर्यात के बदले में उन्हें मंगवाना आसान होता था। इससे राज्य में किसी चीज की कमी नहीं आती थी। राजा महाराजा विदेशों से विलासिता की वस्तुएँ भी मंगवाते थे। सिर्फ . वस्तुएँ ही नहीं, श्रम का, दास-दासियों का भी आयात-निर्यात होता था। महाराजा श्रेणिक के अन्त:पुर में विदेशी दासियाँ थीं। यवन, बब्बर, वाहलीक, पारस, सिंहल, अरब आदि देशों की दासियाँ यहाँ थीं। विदेशों से सुन्दर और बलिष्ठ घोड़े भी आयात किये जाते थे। भारतीय व्यापारी मिथिला नरेश कनककेतु के लिए कालिकाद्वीप से धारीदार घोड़े लाये थे। अरब और कम्बोज से कन्थक जाति के घोड़ों को भारत लाया जाता था। अश्व और दास-दासियों के अलावा विदेशों से स्वर्ण, रजत, रत्न, वस्त्र आदि भी आयात किये जाते थे। आयातकर्ता राजकर से बचने के लिए छल भी कर लेते थे। एक प्रसंग में अंकरत्न, शंख और हाथी दाँत के आयातकर्ताओं ने कर से बचने के लिए अपना मार्ग बदल लिया था। .... निर्यात के अन्तर्गत भारत से अनेक प्रकार की वस्तुएँ विदेशों को भेजी जाती थी, जिनमें रत्न, वस्त्र, सौन्दर्य प्रसाधन, खिलौने, गुड़ जैसी अनेक चीजें भेजी जाती थीं। हस्तीशीर्ष के पोतवणिक् चन्दन, खस, इलायची, सुपारी आदि .सुगन्धित वस्तुएँ, विभिन्न प्रकार के वाद्य यन्त्र, गुड़, खाण्ड, मिश्री, सूती और ऊनी वस्त्र, खिलौने आदि लेकर कालिकाद्वीप गये थे। व्याख्या साहित्य में आयात निर्यात के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। उत्तराध्ययन टीका के अनुसार पारसकुल (159)