________________ 'कुत्रिकापण' में सभी प्रकार की छोटी-बड़ी वस्तुएँ बिक्री के लिए उपलब्ध रहती थी। राजा श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार के दीक्षा-महोत्सव पर कुत्रिकापण से दो लाख स्वर्ण मोहरों के रजोहरण और भिक्षा-पात्र मंगवाये गये थे। कुत्रिकापण की तुलना वर्तमान के विभागीय भण्डारों से की जा सकती है। अलग-अलग वस्तुओं की अलग-अलग दुकान तथा सभी प्रकार की वस्तुओं की एक विभागीय बड़ी दुकान से यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि स्थानीय व्यापार व्यवस्थित था। मेघ कुमार की दीक्षा के लिए दो लाख स्वर्ण-मोहरों के पात्र और रजोहरण तथा एक लाख नाई को दिया जाना इस बात का सूचक है कि धार्मिकगतिविधियाँ भी अर्थ-जगत को बहुत प्रभावित करती थी। वणिक वणिक के अन्तर्गत 'वणि', 'विवणि' और 'कक्खपुडिय' ये तीन भेद मिलते हैं। एक ही स्थान पर दुकान लगाकर बैठकर व्यापार करने वाले वणि, घूम कर व्यापार करने वाले विवणि और बगल में माल की गठरी लेकर व्यापार करने वाले कक्खपुडिय वणिक कहलाते थे। इस प्रकार के सामान्य व्यापारी बहुतायत से पाये जाते थे। गाथापति __ गाथापति और श्रेष्ठी सम्पन्न वर्ग के व्यापारी होते थे। ये व्यापार (क्रयविक्रय) के अतिरिक्त भी बहुत सारे काम-धन्धे करते थे तथा व्यापार भी इनका बृहद् स्तर पर होता था। समाज और शासन में गाथापति और श्रेष्ठी का अच्छा मानसम्मान था। भगवान महावीर का प्रमुख श्रावक आनन्द गाथापति था तथा वह सुप्रतिष्ठित व्यक्तित्व का धनी था। श्रेष्ठी भी बहुत सम्माननीय व्यवसायी होता था। उसे राज्य की ओर से स्वर्ण-मुकुट प्रदान किया जाता तथा वह 18 श्रेणियों का भी मुखिया होता था। सार्थवाह . सामूहिक रूप से व्यापारिक-यात्रा करना 'सार्थ' कहलाता था तथा उस यात्रा के नेतृत्वकर्ता को 'सार्थवाह' कहा जाता था। देशी और विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने में सार्थवाहों का अहम् योगदान रहता था। सार्थवाह एक बहुत ही बुद्धिमान, चतुर, साहसी, दूरदर्शी और निडर व्यक्ति होता था। वह सार्थ को गन्तव्य स्थान पर पहुँचाना अपना कर्तव्य समझता था। व्यापार-यात्री-दल के सभी सदस्यों (145)