________________ धौंकनी से हवा दी जाती थी। लोहे की सण्डासी से प्रतप्त लोहे को ऊँचा-नीचा किया जाता। उसे एरण पर रखकर चर्मेष्ठ या मुष्ठिक (हथौड़े) से पीटा जाता था। पीटे हुए लोहे को ठण्डा करने के लिए जल-द्रोणी (कुण्ड) में डाला जाता था। आज भी गाँवों में लुहार इस विधि से अपना कारोबार चलाते हैं। राजस्थान के गाड़िया लुहार भी इस तरह लोह-वस्तुएँ बनाते हैं। लोहार युद्ध के उपकरण, मुद्गलं, मुषंडि, करौंत, त्रिशूल, हल, गदा, भाला, तोमर, शूल, बी, तलवार, बसुला आदि . बनाते थे। प्राचीन भारत में लौहोद्योग कितना उन्नति पर था, इसका ज्वलन्त प्रमाण दिल्ली में कुतुबमीनार के निकट खड़ा लौह स्तम्भ है। गुप्तकाल से आज तक उस पर कहीं भी जंग नहीं लगा है। सूत्रकृतांग में सूई आदि के उल्लेख तथा अन्य ग्रन्थों में बढ़िया लौह-वस्तुओं के उल्लेख पर हर्मन जैकोबी की टिप्पणी उल्लेखनीय है - The following verses of sutrakritang are interesting as they afford us a glimpse of a Indian household some 2000 years ago. We find here a curious list of domestic furniture and other things of common use.28 इन सभी उद्धरणों से दूसरे अन्य उद्योग-धन्धों के विकास की सूचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। स्वर्ण-रजत और रत्न उद्योग बहुमूल्य धातुओं का व्यवसाय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता था। स्वर्णकार का समाज में सम्मानपूर्ण स्थान था। ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार मेघकुमार को दीक्षा से पूर्व हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, प्रालम्ब, कटक, पाद, त्रुटित, केयूर, अंगद, मुद्रिकाएँ, कटि सूत्र, कुण्डल, चूड़मणि, मुकुट आदि अनेक प्रकार के रत्न जड़ित स्वर्ण-रजत के आभूषण पहनाये गये थे। ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार ही स्वर्णकारों ने उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लि की जीवन्त भव्य स्वर्ण-प्रतिमा बनाई थी। एक बार राजकुमारी मल्लि का एक दिव्य स्वर्णकुण्डल टूट गया। पिता ने स्वर्णकारों से वैसा ही कुण्डल बनाने के लिए कहा, परन्तु स्वर्णकार हूबहू कुण्डल नहीं बना सके तो कुपित राजा ने उनको निर्वासित कर दिया। भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक गाथापति आनन्द आदि बहूमूल्य स्वर्णाभूषण धारण करते थे। ये आभूषण मणि-रत्नों से जड़े हुए होते थे। भगवान महावीर के समक्ष उन्होंने आभूषण धारण करने की मर्यादा कर ली थी। आनन्द श्रावक ने कुण्डल और मुद्रिका (अंगूठी) के अलावा सभी आभूषणों का त्याग कर (130)