________________ हुनर आदि के शिक्षण-प्रशिक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए विविध रोजगारों व रोजगारों के अवसर का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा .. व्यावसायिक कौशल का पीढ़ी-दर-पीढ़ी अन्तरण एवं पुश्तैनी काम-धन्धों की महत्ता भी इन कलाओं से होती है। प्रमुख उद्योग भारतवर्ष के लिए 'स्वर्ण-चिड़िया' की उपमा प्रसिद्ध है। जब हम प्राचीन ग्रन्थों का परायण करते हैं तो यह बात पूरी तरह सही लगती है। सोने की चिड़िया' 'की उपमा देश की आर्थिक उन्नति का संकेत है। प्राथमिक उद्योगों के रूप में यहाँ की विविध विपुल नैसर्गिक सम्पदा का परिचय और बहत्तर व चौंसठ कलाओं से द्वितीयक शिल्प और उद्योगों की एक सुस्पष्ट भूमिका हमें प्राप्त होती है। हम आगम-युग के प्रमुख उद्योगों का निम्न रूप में वर्गीकरण कर सकते हैं:1. वस्त्र उद्योग - सूती, रेशमी, ऊनी, सन, चर्म-वस्त्र। 2. लोहा और इस्पात। 3. अलौह धातु और मूल्यवान पत्थर पर आधारित काम धन्धे। 4. कृषि, बागवानी आदि पर आधारित उद्योग। 5. पशु-उत्पाद पर आधारित उद्योग। 6. वन उत्पादों पर आधारित उद्योग। 7. अन्य उद्योग-धन्धे - पात्र-निर्माण, भवन-निर्माण, बाँस उद्योग आदि। वस्त्र-उद्योग (टेक्सटाइल) वस्त्रोद्योग कृषि के पश्चात् सर्वाधिक महत्त्वशाली और उन्नत था। आगम ग्रन्थों में भाँति-भाँति के वस्त्र, वस्त्र-निर्माण और व्यवसाय के उल्लेख मिलते हैं। आचारांग सूत्र में छ: प्रकार के वस्त्र बताये गये हैं - 1. जांगमिक (जंगिय) जंगम जीवों से प्राप्त। वह पुनः दो प्रकार का है - विकलेन्द्रिय जन्य (लट कीट आदि) और पंचेन्द्रिय जन्य। विकलेन्द्रिय जन्य वस्त्र 5 प्रकार का है - पट्टज, सुवर्णज (मटका), मलयज, अंशक और चीनांशुक। ये वस्त्र कीटों (शहतूत वगैरह) के मुंह से निकले ता/लार से बनते हैं लेकिन अन्तिम दो अंशक और चीनांशुक को विकलेन्द्रिय जन्य नहीं माना जाता है। (124)