________________ ज्ञाताधर्मकथांग के सातवें रोहिणी अध्ययन में चावल के पाँच दानों से गाड़ियाँ भर कर चावल उगाने में बुवाई से लेकर कटाई और भण्डारण तक का जो वर्णन प्राप्त होता है, वह उस समय की कृषि की उन्नत और वैज्ञानिक अवस्था को दर्शाता है। अच्छी सुगन्धित और उन्नत किस्म के चावल का वैसा बम्पर उत्पादन बिना विशेष कृषि-ज्ञान और निपुणता के संभव ही नहीं था। धान्य-संवर्द्धन की इस तकनीक को वैज्ञानिक बताते हुए जर्मन विद्वान गुस्तव रोथ ने रोहिणी कथानक "दि सिमिलीज ऑफ दि एण्ट्रस्टेड फाइव-राइस-ग्रैन्स एण्ड देयर पैरेलल्स' शीर्शक से पूरा शोध-आलेख लिखा और प्राचीन भारत की कृषि-प्रणाली' की तारीफ की। सिंचाई सिंचाई के भी अनेक तरीके अपनाये जाते थे। सिंचाई की दृश्टि से दो प्रकार के खेतों का उल्लेख है- सेतु और केतु। जिन खेतों में सिंचाई की आवश्यकता होती वे सेतु और वर्षा पर निर्भर रहने वाले खेत केतु कहलाते थे। इससे स्पष्ट होता है कि सिंचाई का पर्याप्त प्रबन्धन था। सिंचाई के लिए पुष्करिणी, बावड़ी, कुआँ, तालाब, सरोवर आदि बनाये जाते थे। नदियों का पानी रोककर बांध बनाने के उल्लेख भी मिलते हैं। विमलसूरि के अनुसार बाँधों पर आवश्यकतानुसार पानी रोका जाता और छोड़ा जाता था।" बांधों और नदियों से छोटी-छोटी नहरें निकाली जाती और उन नहरों से कृषक सिंचाई करते थे। किसान सिंचाई के लिए जल की चोरी भी कर लेते थे। वसुदेवहिण्डी के अनुसार सिंचाई-जलं के प्रवाह को मोड़कर उसकी चोरी कर ली जाती थी तथा अपराध सिद्ध होने पर पानी की इस चोरी के लिए कहीं-कहीं चोर को राजकीय-दण्ड भी दिया जाता था। क्षेत्र और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार सिंचाई के साधन भी अलग-अलग थे। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार लाट देश (पश्चिमी भारत) में मुख्यतः वर्षा-जल से, सिन्धु देश (पूर्वपश्चिमी भारत) में नदी-जल से, द्रविड़ (दक्षिण भारत) में तालाब से तथा उत्तरी भारत में कुएँ के जल से सिंचाई की जाती थी। इसी प्रकार बाढ़ के जल को भी सिंचाई में उपयोग कर लिया जाता था। कानन द्वीप में जलाधिक्य की वजह से नावों पर खेती करने का रोचक वर्णन है। आज भी कश्मीर की डल-झील में लकड़ी के पाटों पर मिट्टी डालकर खेती की जाती है, ऐसे 'खेतों' को चलते-फिरते खेत कहा जाता है। (98)