________________ पशुपालन का उद्देश्य यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पशुपालन का मुख्य उद्देश्य दूध-प्राप्ति, भार ढोना, हल चलाना, यातायात आदि था। आज की भाँति 'मांस के लिए पशु-पालन' जैसी वीभत्स स्थितियाँ उस समय नहीं थी। मानव और पशुपक्षियों के बीच पूर्ण सह-अस्तित्व का भाव था। भगवान महावीर की देशनाओं में पशुओं की समुचित देखभाल का निर्देश था। उनके इस निर्देश का प्रभाव सम्पूर्ण जन-जीवन पर था। पशुओं को घास, दाना और पानी (तणपाणिय) दिया जाता। हाथियों को केले, ईक्षु और डण्ठल, भैसों को घास की कोमल पत्तियाँ, घोड़ों को घास, हरिमन्थ (काला चना), मूंग आदि तथा गायों को अर्जुन की पत्तियाँ भी खिलाई जाती थीं। गाय, भैंस, बकरी, हाथी, घोड़ा, ऊँट, गधे, खच्चर आदि पशुओं को पाला जाता था। पालतू पशुओं के विस्तृत ज्ञान के लिए अनेक पुस्तकें उपलब्ध थीं। पुरुषों की 72 कलाओं में हस्ती, गौ, अश्व आदि के भेद जानना भी सम्मिलित था। समान खुर और पूंछ वाले, तुल्य और तीक्ष्ण सींग वाले, रजतमय घण्टियों वाले, सूत की रस्सी वाले, कनकखचित नाथ वाले और नीलकमल के शेखर से युक्त बैलों का उल्लेख मिलता है। एक पशु के ही ऐसे वर्गीकरण से पशु सम्बन्धी विस्तृत ज्ञान के संकेत मिलते हैं। वसुदेवहिण्डी में राजा जितशत्रु का पशु-प्रेम दिग्दर्शित है। उनके दो गोमण्डलों में दो गोपालकों - चारूनन्दी और फग्गुनन्दी को नियुक्त कर रखा था। एक बार राजा जितशत्रु चारूनन्दी द्वारा रक्षित गोमण्डल में गया। अपने स्वस्थ-सुन्दर पशुओं को देखकर राजा प्रसन्न हो गया। इस प्रकार राजाओं की उनकी अपनी गोशालाएँ होती थीं तथा राजा की गोशालाओं के पशु चिह्नित होते थे। अनाथ, सनाथ, स्वस्थ-रूग्ण सभी पशुओं के लिए उनमें चारा-पानी की व्यवस्था रहती थी। दुग्ध और दुग्धोत्पाद व्यापार . गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और ऊँटनी दूध देने वाले पशु थे। दूध से दधि, छाछ, नवनीत, घृत आदि की प्राप्ति होती थी इन सभी दुग्ध उत्पादों को गोरस कहा जाता था। उस समय किसी ऑक्सीटोसीन इंजेक्शन का प्रचलन नहीं था। अत: दूध निर्दोष और पुष्टिकारक होता था। वह स्वास्थ्य और पोषण का आधार था। आभीर (अहीर) व्यक्ति मुख्य रूप से दूध-दही का व्यापार करते थे। उनकी अलग बस्तियाँ और गाँव होते थे। पशुओं को चरने के लिए बड़े-बड़े चरागाह होते थे। (105)