________________ हुआ करते थे। आभूषणों के अलावा इन मणियों को फर्निचर में जड़ा जाता था। रथ, पालकी, हाथी, घोड़े आदि को सजाने में भी इनका उपयोग होता था। विविध आभूषण चौदह प्रकार के आभूषणों का उल्लेख आगम-ग्रन्थों में प्राप्त होता है - हार (अठारह लड़ियों वाला), अर्धहार (नौ लड़ियों का), एकावलि (एक लड़ी का हार), कनकावलि, मुक्तावली, रत्नावलि (मोतियों के हार), केयूर, कडय (कडा), तुडिय (बाजूबन्द), मुद्रिका (अंगूठी), कुण्डल, उरसूत्र, चुडामणि और तिलक। हार, अर्धहार, तिसरय (तीन लड़ियों का हार), प्रलम्ब (नाभि तक लटकने वाला), कटिसूत्र (करधौनी), ग्रैवेयक (गले का हार), अंगलीयक (अंगूठी), कचाभरण (केश में लगाने का आभरण), मुद्रिका, कुण्डल, मुकुट, वलय (वीरत्व सूचक कंकण), अंगद (बाजूबन्द), पाद प्रलम्ब (पैर तक लटकने वाला हार), और मुरवि नामक आभूषण पुरूषों द्वारा धारण किये जाते थे जबकि नूपुर, मेखला (कन्दोरा), हार, कडग (कड़ा), खुद्दय (अंगूठी), वलय, कुण्डल, रत्न और दीनारमाला आदि स्त्रियों के आभूषण माने जाते थे। स्पष्ट है कि पुरुष भी स्त्रियों की भाँति आभूषण धारण करते थे। इससे रत्न व्यवसाय के विस्तार का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। - प्राथमिक उद्योग धन्धों में कृषि, कृषि आधारित गतिविधियाँ, पशुपालन, बागवानी, वानिकी, खनन आदि पर विमर्श से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था बहुत ही नियोजित ढंग से आगे बढ़ रही थी। दूध, शाक-सब्जियाँ, फल और फूलों का व्यापार इसलिए सुनियोजित माना जायगा कि ये चीजे शीघ्र नाशवान होती हैं तथा समय पर इन्हें अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाना होता है। निस्सन्देह राज्य, समाज और व्यापारिक निकायों में अद्भुत प्रबन्धन और समन्वय रहा होगा। (114)