________________ परिच्छेद चार द्वितीयक उद्योग प्राथमिक उद्योग सीधे प्रकृति पर आधारित होते हैं। उनके उत्पादों को सीधे या मामूली श्रम और प्रक्रिया के बाद काम में लिया जा सकता है। प्रचुर प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश काल के लिए हर दृष्टि से अनुपम वरदान होते हैं। प्राथमिक उद्योग के उत्पाद ही द्वितीयक उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य की कलाप्रियता और शिल्प मानव एक सांस्कृतिक प्राणी है, कला-प्रेमी है। वह किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पूर्व उसे संस्कारित करता है। इससे वस्तु रूपान्तरित हो जाती है और उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। उसकी इस वृत्ति के कारण अन्य बातों के अलावा अर्थतन्त्र का दायरा भी बढ़ता है। गन्ने के रस का गुड़ बना लेने पर वह वर्ष-पर्यन्त-वर्ष, जब चाहे तब काम में लिया जा सकता है, उसे आसानी से परिवहनित किया जा सकता है। स्वर्ण-रजत को गहनों में ढाल कर, गहनों में मणियाँ जड़कर उन्हें उपयोगी और कलात्मक बनाया जाता है। गेहूँ के दानों को सीधा नहीं खाया जाता अपितु उन्हें पीस कर, उनकी रोटी या व्यंजन बनाकर खाया जाता है। इस प्रक्रिया में श्रम और कौशल के अलावा अन्य अनेक वस्तुओं की आवश्यकता भी होती है। भोजन को पात्र में लेकर खाया जाता है। वस्त्रों को साधारण तरीके से ओढ़ने की बजाय उन्हे संस्कारित कर, विविध डिजायनों से मण्डित कर पहना जाता है। वस्तुतः जिस सभ्यता, संस्कृति, धर्म और समाज के साथ मानव ने अपना विकास किया है, उसकी इस विकास-यात्रा में अर्थतन्त्र का प्रत्यक्ष और प्रमुख योगदान है। 'अर्थ' मानव का सबसे बड़ा प्रेरक तत्त्व रहा है। उद्योगों का वर्गीकरण - कच्चे माल को पक्के में रूपान्तरित करने के लिए अनेक प्रकार और स्तर के उद्योग-धन्धे विकसित हो जाते हैं। जैन-सूत्रों में उल्लिखित ऐसे उद्योगों को कुटीर (गृह), लघु और बड़े उद्योगों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। प्राथमिक उद्योग और गृह-कुटीर उद्योग दोनों जुड़े हुए थे। गृह उद्योग की गतिविधियाँ घर में सम्पन्न होती हैं और उसमें घर के छोटे-बड़े सदस्य योगदान करते हैं। सभी (117)