________________ परिच्छेद दो पशुपालन कृषि और पशुपालन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। तब यान्त्रिक / मशीनी युग का आरम्भ नहीं हुआ था, इसलिए पशु कृषि और कृषकों के लिए अभिन्न मित्र की भाँति होते थे। आज इतने मशीनीकरण के बावजूद कृषि और यातायात में पशुओं की खासी भूमिका है। उस समय तो और अधिक थी। भारत के लिए कहा जाता है, यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहती थीं। जब उपासकदशांग सूत्र पढ़ते हैं तो लगता है; सचमुच, यहाँ घी-दूध की प्रचुरता थी। दस श्रावकों का पशुधन उपासकदशांग में वर्णित दसों ही श्रमणोपासकों के पास विपुल पशु धन था, जिसमें गोधन प्रमुख था। पशुओं के समूह अथवा बाड़ेनुमा आवासस्थल को व्रज (वय), गोकुल अथवा संगिल्ल कहा जाता था। एक व्रज के में दस हजार गायें अथवा पशु रहते थे। इस श्रावकों के पशु-धन की संख्या निम्न थी' :1. आनन्द - चार व्रज ____ = 40 हजार गौएँ 2. कामदेव ___ - छः व्रज = 60 हजार गौएँ 3. चुलनीपिता - आठ व्रज = 80 हजार गौएँ 4. सुरादेव - छ: व्रज = 60 हजार गौएँ. 5. चुल्लशतक छः व्रज * = 60 हजार गौएँ 6. कुण्डकौलिक - छः व्रज = 60 हजार गौएँ 7. सद्दाल पुत्र - एक व्रज = 10 हजार गौएँ 8. महाशतक - आठ व्रज = 80 हजार गौएँ 9. नन्दिनीपिता - चार व्रज __= 40 हजार गौएँ 10. सालिहीपिया - चार व्रज = 40 हजार गौएँ आचार्य आत्मारामजी ने 'गाय' शब्द को समस्त पशुधन का बोधक कहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक व्यक्ति के पास भी चालीस, साठ और अस्सी-अस्सी हजार की संख्या में पशु-सम्पदा होती थी तो पशुपालन कितना व्यापक और प्रमुख धन्धा रहा होगा। (104)